Tuesday, 4 June 2024

 नीतीश कुमार होने की महत्ता


कोई भी व्यक्ति जिसे लगता हो कि उसकी प्रासंगिकता कम हो गई है या खत्म हो रही है उसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को देखना चाहिए। पिछले कुछ सालों में नीतीश कुमार को लेकर बहुत सी बातें हुई जैसे उनका और उनकी पार्टी का स्वतंत्र रुप से कोई अस्तित्व नहीं है, ज़मीन पर उनका और उनकी पार्टी का कोई कैडर नहीं है और वो संयोगवश केवल पलटी मार मार के मुख्यमंत्री बने रहे हैं। वो ऐसे खिलाड़ी है जो किसी ना किसी के कंधे पर बैठ कर बड़े बनते हैं उनका खुद का कद कोई बहुत बड़ा नहीं है। 

इंडिया गठबंधन के लिए पहल करने वाले नीतीश कुमार, अलग अलग पार्टियों के साथ संयोजन बैठाने वाले नीतीश कुमार, लालू यादव के साथ भाईचारा निभाने वाले नीतीश कुमार, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पाला बदल कर एनडीए में मिल गए। पूरे देश में किरकिरी हुई और पलटी कुमार के नाम से मशहूर हुए। बिहार एक बार फिर राजनीतिक सरगर्मियों के कारण सुर्खियों में आ गया था और नीतीश कुमार पूरे देश के लिए मज़ाक का पात्र बन गए थे इसके साथ साथ पूरे देश में बिहार को लेकर भी कुछ ऐसा ही माहौल था कि इस राज्य का कुछ नहीं हो सकता। 

वो नीतीश कुमार जो इस बात का श्रेय लेते हैं कि उनके कारण ही बिहार की जो जंगलराज की छवि थी उसमें बदलाव हुआ, पूरे देश में बिहारियों को जो गाली पड़ती थी उसमें सुधार हुआ और बिहार सुशासन के पथ पर आगे बढ़ा, वो नीतीश कुमार जो देश के लिए पीएम मैटेरियल चल रहे थे अचानक उनके बारे में ये बात होने लगी कि उनकी पार्टी का चुनाव के बाद भाजपा या राजद में विलय हो जाएगा, एक तरह से नीतीश और उनकी पार्टी जद यू के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा गया था। 

चुनाव के दौरान पटना में चल रहे प्रधानमंत्री मोदी के रोड शो के दौरान हाथ में कमल का निशान लिए नीतीश कुमार की तस्वीर काफी वायरल हुई जिसमें नीतीश का कद काफी छोटा लग रहा था और चेहरे की चमक भी गायब थी। किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने वाली तस्वीर थी वह जहां एक समय पीएम पद के दावेदार चल रहे नीतीश कुमार पीएम के सामने बहुत छोटे दिखाई पड़ रहे होते हैं। 




आज चुनाव के नतीजों के बाद कोई सबसे ज्यादा प्रासंगिक बन गया है तो वो फिर से नीतीश कुमार ही हैं। भाजपा को अकेले पूर्ण बहुमत नहीं मिला है और एनडीए साथ दो सबसे बड़े दल नीतीश की जद यू और चन्द्राबाबू नायडू की टीडीपी है। ये दोनों दल पहले इंडिया गठबंधन का हिस्सा थे और अब की स्थिति में इनकी उपस्थिति सरकार बनाने के लिए बहुत जरूरी है। 

नीतीश फिर से किंगमेकर बन कर उभरे हैं और इनकी मांग पूरी करना एनडीए और इंडिया दोनों के लिए मजबूरी है। नीतीश कुमार फिर से जो चाहें इनसे मनवा सकते हैं और सबसे छोटा दल होने के बावजूद जैसे वो बिहार में इतने सालों से पाला बदल बदल कर मुख्यमंत्री रहे हैं आगे और भी महत्वपूर्ण पद पर बैठ सकते हैं।




नीतीश कुमार को देख कर लगता है कि वक्त कभी भी किसी का भी बदल सकता है बस टिके रहने की जरूरत होती है। 




Friday, 3 November 2023

                                    अथ श्री मसाला फिल्म कथा 




कुछ दिनों से मैं खुद को कुछ ज़्यादा ही गंभीर, विवेकी, बुद्धिजीवी टाइप से समझ रहा था, लग रहा था कि मेरी पसंद थोडी अलग है, सामान्य चीजें और बाज़ारवाद मुझे आकर्षित नहीं करते और सिनेमा के मामले में तो मेरी पसंद बिलकुल ही जुदा हो गई है और भारी भरकम फिल्में मुझे ज़्यादा पसंद आ रही हैं जिसका जिक्र लोगों के बीच कम हो रहा है ऐसे सिनेमा का नाम लेकर जैसे "काफ़िर की नमाज़, एक रूका हुआ फैसला, सलीम लंगड़े पे मत रो, मंटो " मैं लोगों के बीच कुछ अलग सा ही लगता हूँ। मैं सामान्य से खुद को अलग मान कर एक अलग ही जोन में खुश चल रहा था। 


फिर एक रात मुझे एहसास हुआ कि ऐसा भी क्या हो गया है मुझे आखिर क्यों मसाला फिल्में मुझे पसंद नहीं आ सकती, क्यों मैं गदर टू में सन्नी देओल को फिर से हैंडपैंप उखाड़ते देख चिल्ला नहीं सकता, क्यों मैं पठान में सलमान खान की इंट्री पर सीट पर चढ़ के नाच नहीं सकता, क्यों मुझे जवान फिल्म के करोड़ों की कमाई भी सिनेमाघर के तरफ खींच नहीं सकती।


ऐसे में मैं अचानक नींद से जागा "गैंग्स ऑफ वासेपुर" को याद कर के खुद को कोड़े मारे और आधी रात को "पठान" लगा कर देखने बैठा कि शुरुआत यही से की जाए और देश के आम दर्शकों के साथ कदम से कदम मिला कर चला जाए, और खुद से खुद को दिया हुआ आउटडेटेड/ इंटेलेक्चुअल का अवार्ड खुद को वापस कर दिया जाए।


भाई साहब मैं बता रहा हूँ मैं कोई दुनिया से अलग तो नहीं हूँ लेकिन इतना धैर्यवान भी नहीं हूँ, मुझे और धैर्य की आवश्यकता है कि मैं इस फ़िल्म को पूरा कर सकूँ, फिल्म के संवाद मुझे धांय धांय एक्शन दृश्य में चल रहे गोलियों के तरह लग रहे थे, मैं फ़िल्म के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था, मैं सोच रहा था कि बंद कर दूँ फिर सोच रहा था कि क्यों फिल्में ऐसी ही तो होती हैं, फिल्में ऐसी ही तो होनी चाहिए फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है, ऐसा क्या हो गया है मुझे, बीच में उठ के मैंने पानी पीया, खुद को कोसा और अपने धैर्य की परीक्षा उत्तीर्ण करने की कोशिश में फिल्म को पूरा किया। 


इस हादसे के बाद फिर से वासेपुर के तर्ज पर खुद को कोडे मारे और खुद को इसकी सजा दी, अब मैं गदर टू और जवान देखने की हिम्मत जुटा रहा हूँ ताकि आम दर्शकों की भीड़ में शामिल हो सकूँ, अगले किस्त में किसी और मसाला फिल्म की कहानी लेकर आऊंगा, मेरे लिए दुआ कीजिएगा। 


धन्यवाद

Thursday, 12 October 2023

           सोशल मीडिया बनता जा रहा है सॉफ्ट पॉर्न का अड्डा

एक बड़ी संख्या में देश की जनता को लग रहा है कि सारे लाइक्स और फौलोवर नंगई से ही आ रहे हैं, और कहीं ना कहीं उनकी ये सोच ठीक भी है, क्योंकि लगभग लोग ऐसे सफलता पा भी रहे हैं, और बात ये ठीक भी है कि इंसान तो नंगा पैदा होता है तो नंगई में शर्म कैसी, इंसान नंगा ही पैदा होता है, कपड़े इंसानों ने बनाया है वरना नंगा होना इज नैचुरल।


अब सबसे जरूरी है पैसा, पहले सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल, फिर फोलोवर, लाइक्स की संख्या में बढोतरी और फिर इंन्फ्लुएंसर का तमगा और फिर कमाई और वो चाहे जैसे हो। कुछ लोग अपने कन्टेंट से भी कमा रहे हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम और उसमें मेहनत ज़्यादा है, अब मेहनत ही करना होता तो पढाई लिखाई करते, यूपीएससी की तैयारी करते फिर सोशल मीडिया पर क्या कर रहे हैं। 


जीवन का सिद्धांत है कम मेहनत और कम समय में ज़्यादा कमाई, लीक से हट कर कुछ करना जिसे लोग पसंद करें, और सबसे आसान और लीक से हट कर यही है, अब ये अलग बात है ज़्यादातर लोग इसी तरीके से लीक से हट रहे हैं।


दिक़्क़त उनके साथ है जो ना अभी तक नंगई के प्रति सहज नहीं हुए हैं, अब वो सेमी नंगई के साथ कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन अभी सामाजिक बंधनों से मुक्त नहीं हुए हैं इस वजह से कमाई से अब तक दूर हैं और पारंपरिक तरीके से नौकरी कर के जीवन चला रहे हैं और कसक ये है कि यार इतने आसान तरीके से जब कमा सकते हैं तो ये कोई ये पारंपरिक तरीका क्यों ले, वो क्यों ना ले। 


परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन ये सब पुरानी बातें हो गई, देश का बहुत बड़ा वर्ग है जो पढाई लिखाई से वंचित रहा है, रोज़गार से दूर है, उनके लिए अगर ये कमाई का जरिया है तो ठीक ही है बाकी हमारे जज करने से उनका जीवन तो चलेगा नहीं।

सबसे ज़्यादा संख्या में हमारे यहां पॉर्न देखा जाता है और अब सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक ये सॉफ्ट पॉर्न के रूप में पहुंच रहा है तो क्या ही दिक़्क़त है, और ये बनाने वाले कहीं बाहर के नहीं हैं आस पास के हैं और बच्चों से बूढों तक इसकी पहुंच आसानी से हो रही है। 


एक हमारी तरह के भी लोग हैं जो ये सब लिखने के अलावा कुछ कर नहीं सकते हैं तो लिख रहे हैं, इसे जिस रूप में लेना है लिया जाए बाकी तो "मेरा देश बदल रहा है और कम से कम इस मामले में तो बहुत तेजी से आगे बढ रहा है।"

 

विकास की राह ताकते किशनगंज के पंचायत, कहां है विकास ?

देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक बिहार और बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका सीमांचल। बिहार के सबसे उत्तर-पूर्वी छोर पर बसा सीमांचल का जिला किशनगंज जो एक तरफ बंगाल से जुड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ नेपाल से। किशनगंज जिले में कुछ गांव तो ऐसे हैं जो बंगाल से ज्यादा जुड़े हुए हैं और बिहार से कम। बिहार की बदहाली का आलम अगर आप जानते हैं तो सोचिए बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका भला कितना बदहाल होगा।

बिहार का परिसीमन इस प्रकार का है कि किशनगंज जिला और लोकसभा क्षेत्र का गणित समझने के लिए आपको पेन और पेपर लेकर बैठना होगा। किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में 6 विधानसभा क्षेत्र हैं किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंज, ठाकुरगंज, बैसी और आमौर। अब बैसी और अमौर किशनगंज जिले का नहीं पूर्णिया का हिस्सा हैं। किशनगंज जिले में इनमें 4 विधानसभा क्षेत्र हैं किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंज और ठाकुरगंज। किशनगंज जिले में सात प्रखंड हैं, किशनगंज विधानसभा में दो किशनगंज और पोठिया, कोचाधामन में एक कोचधामन, बहादुरगंज में बहादुरगंज और टेढ़ागाछ और ठाकुरगंज में ठाकुरगंज और दिघ्घलबैंक। अब परिसीमन का ऐसा आलम है कि किशनगंज प्रखंड के 6 पंचायत कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र में हैं।

विकास का यहां ऐसा आलम है वो कहां है खोजने से भी नहीं मिलेगा। सरकार की तमाम योजनाएं यहां आते आते दम तोड़ देती हैं। किशनगंज प्रखंड का पंचायत पिछला, वार्ड नंबर 15, ये महादलित की बस्ती है और इस वार्ड में एक भी शौचालय नहीं है। बरसात के दिनों में यहां इतना पानी भर जाता है कि गर्दन तक पानी पार कर के आप अपने घर में जाना संभव हो पाता है। यहां के वार्ड सदस्य की मानें तो पेड़ पर रहने के नौबत आ जाती है। बरसात में यहां रहने वाले लोग बांस को जोड़ कर ऊंचा कर घर बनाते हैं या रोड पर रहने चले जाते हैं। यहां एक भी घर में उज्ज्वला योजना के तहत गैस नहीं मिला है। ये अभी भी लकड़ी पर खाना बनाते हैं लेकिन आप इनसे जाएं तो चाय जरूर पिलाते हैं। ये इतने अभाव में हैं कि कोई नेता इनसे झूठे वादे कर के वोट ले सकता है। पिछले कई सालों से ये यहीं पर हैं लेकिन विकास से अनंत काल की दूरी पर हैं। ये जीवन के मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित हैं तो शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क तक तो बात भी नहीं पहुंचती। बिजली ज़रूर यहां पहुंची है वरना ये अंधेरे में रहने को विवश रहते क्योंकि किरोसिन तो अब कहीं मिलता नहीं।


ऐसे ही किशनगंज प्रखंड में ही है पंचायत दौला जिसका वार्ड नंबर 14 पूरा का पूरा कट कर महानंदा में समा गया। इसके निवासी पिछले चार साल के रोड के दोनों किनारे झोपड़ी बना कर रह रहे हैं, इनके लिए जैसे सरकार सो रही है। इसी बीच लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी हुए लेकिन इनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। लोगों की जमीने महानंदा में समा गई वो बेघर भी हुए और बिना जमीन वाले भी लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। एक बुजुर्ग महानंदा की तरफ दिखाते हुए कहते हैं वो दूर मेरा घर था महानंदा ने सब ले लिया। अब मजदूरी कर के जी रहे हैं। इसी प्रखंड में एक पंचायत है पिछला जो अपने नाम के अनुरूप किशनगंज का सबसे पिछड़ा पंचायत है। यहां कुछ लोगों को उज्ज्वला गैस का कनेक्शन तो मिला है लेकिन उसे भराने के लिए कोई सुविधा नहीं क्योंकि किशनगंज जाकर गैस भरा कर लाना एक दिन की मजदूरी का नुकसान करना है। बंगाल पास होने से ब्लैक में गैस तो मिल जाएगा लेकिन उसके लिए 3000 रुपए खर्च करना समान्य परिवार के लिए लगभग असंभव ही है।  

किसी भी पंचायत में आप जाएं आपको सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि आधी से ज्यादा आबादी रोजगार के लिए बिहार से बाहर है। यहां काम धंधे का कोई उपाय नहीं और पेट पालने के लिए पैसा कमाना जरूरी है। आलम ये है कि एक वार्ड सदस्य ने कहा कि कि वार्ड सदस्य तो हैं लेकिन कहीं नौकरी मिल जाती तो ज्यादा अच्छा होता, वार्ड सदस्य होने से पेट थोडे भरता है ना इसका कोई भविष्य है।

वैसे तो बिहार के ज्यादातर पंचायत का हाल कमोबेश ऐसा ही है लेकिन किशनगंज के किसी भी पंचायत में आप दिन में चले जाएं तो गांवों में ऐसा सन्नाटा मिलता है जैसे कोई रहता ही ना हो। कुछ बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग खोजने पर मिलते हैं, बात करने पर पता चलता है कि आधे से ज्यादा आबादी कमाने के लिए बिहार से बाहर रहती है। किसी किसी गांव में तो पलायन सत्तर फीसदी से ऊपर है। वैसे तो भारत गांवों का देश है लेकिन इन गांवों की खबरें दिखाने के लिए ना तो कोई मीडिया है ना इनकी स्थिति सुधारने के लिए कोई सरकार। आजादी के पचहत्तर सालों के बाद भी ये गांव अपने विकास की बाट जोह रहे हैं।

Friday, 2 July 2021


फिल्म समीक्षा- राधे

राधे एक अति डिस्टर्बिंग मूवी है इसे देखना परमाणु परीक्षण से भी भी ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है।

फ़िल्म में एक ही किरदार है सलमान और बाकि सब भाई के मनोरंजन के लिए है।

मूवी खत्म होने की रफ़्तार बुलेट ट्रेन से भी तेज़ है इस तरह भाई सरकार का सपोर्ट करते हुए दिखते हैं कि बुलेट ट्रेन ना सही बुलेट मूवी सही।

इस फ़िल्म में रियल लाइफ़ की तरह रील लाइफ़ में भी भाई लोगों पर गाड़ी चढाने का शौक पूरा करते हुए दिख हैं।

फ़िल्म में सबके अधिकारों का ख़्याल रखते हुए सबको अपने हिसाब से डायलॉग बोलने और एक्टिंग करने की छूट दी गई है इसलिए जिसको जो मन कर रहा है वो कर रहा है।

हर किरदार फ़िल्म में कुछ ना कुछ कर रहा है परंतु क्या

करना चाहता है वो स्वयं नहीं जानता है।

सामान्य हालात में ये फ़िल्म देखना आपको पागल कर सकता है इसलिए अपने किसी ऐसे दोस्त के साथ इसे देखें जिसने इस दुनिया से उम्मीद रखनी छोड़ दी हो।

समय के साथ खराब एक्टिंग की मिसाल कैसे पेश कर सकते हैं ये कलाकारों को सलमान से सीखना चाहिए।

जीवन से हताश निराश लोगों के लिए ये फ़िल्म टॉनिक का कार्य करती है कि जब ऐसी फ़िल्में चल सकती हैं तो जीवन क्यों नहीं चल सकता।

बाकि ये मूवी रेटिंग और आलोचनाओं से परे है ट्रेलर से ही पता

चल गया था कि इसको देखने में रिस्क है तो सवारी सामान की खुद ज़िम्मेदार है आप चाहें तो देश के नाम खुला खत लिख कर भी देख सकते हैं बाकि ये फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए ताकि पता चल सके कि कैसी फ़िल्में नहीं देखनी चाहिए।



Friday, 20 April 2018


एक बच्ची के साथ ऐसा कोई कैसे कर सकता है..........


रात को दो बजे लाइट बंद करने के बाद सोने के लिए जैसे ही बिस्तर पर सोने के लिए आया देखा मोबाइल पर एक दोस्त का कॉल आ रहा था, चूंकि रात के दो बज रहे थे इसलिए थोड़ी चिंता का हो जाना स्वभाविक ही था, मैंने कॉल उठाया तो उधर सिसकती सी आवाज के साथ एक सवाल आया कि 8 साल की बच्ची के साथ ऐसा कोई  कैसे कर सकता है, वो तो बता भी नहीं सकती कि उसके साथ क्या हुआ, उसे कितना दर्द हुआ होगा, वो रो रही थी और लगातार यही बात दुहरा रही थी।

मैं खामोश चुपचाप उसे सुन रहा था, समझ नहीं आ रहा था उसके इस सवाल का क्या जवाब दूँ कि ऐसा कोई कैसे कर सकता है वो भी 8 साल की बच्ची के साथ, मैं क्या बोलता ऐसा क्यों हुआ, मैं कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं था, वही रटारटाया सा जवाब था मेरे पास हम दरिंदे हो गए हैं क्या करें।

वो रोती रही और रोते-रोते उसने बताया कि मुझे डर लग रहा है कि उसकी भतीजियों के साथ भी ऐसा कुछ ना हो, वो दोनों भी बच्ची हैं रोज़ दोनों स्कूल जाती हैं, कही कुछ हो गया तो। मेरे साथ तो घर में ही ऐसा हुआ जब मैं बहुत छोटी थी, मैं किसी को नहीं बता पाई, आज मुझे सब याद आ रहा है कि मेरे साथ क्या हुआ था, मुझे डर लग रहा है कि उनके साथ कुछ ऐसा हुआ तो, किसी ने उन्हें जबरदस्ती छुआ तो क्या वो भी किसी को नहीं बताएंगी जैसे मैंने किसी को नहीं बताया।

हमारी गलती क्या है? क्या लड़की होना हमारी गलती है? मेरे पास उसके सवालों का कोई जवाब नहीं था, मैं उसको क्या दिलासा देता क्या समझता कि चिंता नहीं करो कल से ऐसा कुछ नहीं होगा, कल से अखबार के किसी पन्ने पर किसी बलात्कार की खबर नहीं छपेगी, कल से कोई किसी लड़की को अनैतिक रुप से नहीं छुएगा, कल से किसी घर में खुल के बेटियां बता सकेंगी कि हां उसके साथ कुछ गलत हुआ है।

वो इतनी देर तक रोती रही कि मैं झल्ला गया और उसे चुप कराने के बजाए उस पर चिल्ला बैठा लेकिन ये चिल्लाहट उस पर नहीं खुद पर थी, अपनी बेबसी पर थी कि हर रोज़ की तरह सुबह अखबार के पन्ने पलटते हुए ऐसी कई खबरें दिख जाएंगी, फिर अखबार बंद होने के साथ ये खबरें भी दिमाग के किसी कोने में दब जाएंगी। निर्भया से लेकर आसिफा तक यही हो रहा है आगे भी होते रहेंगे, कई कैंडल मार्च निकालने बाकी हैं तैयार रहिए हम ऐसे ही हैं।

Saturday, 14 April 2018




हम गिरे हुए लोग हैं हमारा कोई ईमान धर्म नहीं.



जी हाँ ये बात ये बात मैं पूरे होशोहवास में कर रहा हूँ। हम डिजर्व ही नहीं करते किसी भी धर्म को पूजना क्योंकि मैंने तो बचपन से यही सुना है और पढ़ा है कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना लेकिन हम वही कर रहे हैं, भले खुद कर रहे हों या किसी के इन्फ्लुएंस में आ के लेकिन यही सच है वरना दुनिया का कौन सा ऐसा धर्म है जो बलात्कार को जायज मानता हो या धर्म की आड़ में किसी बलात्कारी को सपोर्ट करता हो।

मैंने जब पढ़ा कि आसिफा के कातिलों को बचाने के लिए वकीलों ने ऐसा हंगामा किया किया कि पुलिस को चार्जशीट दायर करने में 6 घंटे लग गए तो मुझे ये लगा कि हम किस युग में जी रहे हैं? हम क्या कर रहे हैं? क्या सारे सवाल सरकार से होंगे, सिस्टम से होंगे, क्या आपकी औकात है कि आप खुद से सवाल कर सकें कि हम क्या कर रहे हैं।
मैं पूरे होशोहवास में ये बात कर रहा हूँ धर्म के नाम पर हंगामा करने वालों से कि मैं धर्म की कोई ठोस परिभाषा पूछूं कि धर्म क्या है तो कोई बता पाएगा। ये महज संयोग की बात है कि मैं हिन्दू ब्राह्मण परिवार में जन्मा। मैं दलित हो सकता था, मैं मुसलमान हो सकता था, मैं ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध कुछ भी हो सकता था लेकिन क्या वो मेरा चुनाव होता?  ऐसा होता तो सब समाज के सबसे उपरी पायदान में जन्म लेना चाहते। क्या अभी जो मैं स्वतंत्र रूप से लिख रहा हूँ यही दलित होने पर लिख सकताक्या आत्मविश्वास को भी जाति,धर्म का मोहताज होना चाहिए?

क्या हिन्दू के साथ हुआ बलात्कार मुसलमान के साथ हुए बलात्कार से अलग होता है, क्या किसी मुसलमान की चीखें हिन्दू लड़की की चीखों से कम है, क्या इन चीखों को धर्म के आधार पर विभाजित किया जा सकता है?
हम क्या कर रहे हैं हम क्यों कर रहे हैं कभी पूछा है खुद से अगर आसिफा आपकी बेटी होती (भगवान ना करे ऐसा हो) तो आप ऐसा ही करते।

ये कैंडल मार्च, ये सोशल मीडिया पर जस्टिस फॉर आसिफा चला के कुछ हासिल नहीं होगा। लड़ना है तो अपने परिवार से लड़िए अगर वो हिन्दू मुसलमान में फर्क करता हो, लड़िए अगर वो बेटे के मुकाबले बेटी को कम आजादी देता हो, लड़िए अगर वो किसी और जाति के चाय पीने के लिए अलग ग्लास और खाने के लिए अलग थाली रखता हो।

इतनी जल्दी कुछ नहीं बदलेगा क्योंकि हम भी धारा के साथ उसी में शामिल हो जाते हैं और वही मानते हैं जो हमारा परिवार हमारा समाज आज तक मानते आया है लेकिन अब आपको तय करना है कि आप क्या चाहते हैं।
नारी का अपमान तो महाभारत काल से होता आया है लेकिन वहां भी कोई कृष्ण था लेकिन अब ये आपको तय करना है कि मौका मिलने पर आप दुशासन बनेंगे या कृष्ण?