Thursday 3 July 2014

ये कहानी हमारी नहीं है, ये कहानी है के बाइक कि जिसने अपना जीवन हमारी सेवा में समर्पित कर दिया। जब हम बी.टेक कर रहे थे तब हमारे पास हीरो होण्डा की स्पेल्नडर हुआ करती थी, वैसे थी तो वो याहया रईस की लेकिन कभी लडके ने अपना हक नही जताया यहं तक कि उसके खुद के काम के लिये भी उसे चाभी मांगनी पडती थी। वैसे भी उस बाइक ने कभी रुकने का नाम नही लिया, कोइ ना कोइ उस पर हमेशा सवार ही रहता था। एक अजीब सी खासियत थी उस बाइक की उसके पीछे का इंडीकेटर हमेशा टूटा रहता था और उसे जब भी बनवाने का प्रयास किया गया वह वापस अपने पूर्ववत अवस्था में जाता था याहया ने ना कभी उस बाइक पर अपना अधिकार जताया और ना कभी हमने जताने दिया। अक्सर चाभी रुम . में रहती थी जो सबका सामूहिक कमरा था। बाइक पे सवारी तो लोगो की ही होती है लेकिन मुझे वो एक भी दिन नही याद जब उसपर से कम लोग बैठे हो हां ये संख्या अधिक जरुर हो जाती थी जब कुछ जरुरत से ज्यादा प्रतिभावान लोग होते थे और जिनकी शारीरिक संरचना उन्हे अनुमति देती थी कि वो लोग आराम से बैठ जाये ऐसे लोगो मे थे मैं, भानू, क्रिष्णा, याहया, अभिषेक पांडेयराज और अभिषेक यादव बाकी इसी मे परिवर्तन होता रहता था और कुछ नये लोग जुड्ते रहते थे। बैठने की व्यवस्था ऐसी थी कि एक कोइ टंकी पर बैठता था जो हैण्डल पकडता था और उसके पीछे बैठा हुआ गेयर बदलता था बाकी पीछे बैठे दो लोग बाइक को संतुलन प्रदान करते थे। सब पढने वाले थे और पैसे की किल्ल्त हमेशा रहती थी इसलिये उसमे १० से २० का पेट्रोल डलाया जाता था इसका एक कारण यह भी था कि पेट्रोल उतना ही डलाया जाता था कि जाके बस वापस आया जा सके वरनी ये होता कि तेल भराये कोइ और घुमे कोइ और कुल मिलाकर पहले दो साल में इस बाइक ने हमारा खुब साथ निभाया जिसने लखनऊ शहर से हमारा परिचय कराया, जिसने टुण्डे कबाब का हमें पहली बार स्वाद चखाया, जिसने हजरतगंज और सहारागंज में नाइट शो देखने मे अपना योगदान दिया, आलमबाग चौराहे की चाय हो या दिपू और बिल्लू भैया की चाय सबमें वह हमेशा ह्मारे साथ खडा रहा। लखनऊ के पहला सफ़र के गवाह और हमारे यादो का साथी जहा भी हो उसका शुक्रिया तहे दिल से सब दोस्तो की तरफ़ से करता हू मैं। और बाईक के मालिक का शुक्रिया इसलिये नही क्योकि वो ह्मारा परम मित्र हम सबकी जान है जिसके साथ हमने इतने मजाक किये फ़िर भी हमारे साथ हमेशा खडा रहा याहया रईस।