Tuesday 13 January 2015

एक नारा सुना था, या यूं कहलें कि कई बार लगाया भी है  कि "हम बदलेंगे युग बदलेगा" किन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि हम कब बदलेंगे और ये युग कब बदलेगा। तमाम स्वयंसेवी संस्थायें, जागरुकता मंच, एनजीओ, आदि अनेक माध्यमों  यथा नुक्कड नाटक, प्रचार सभा, बैनर, पोस्टर से जागरुकता फ़ैलाने का प्रयास करते हैं परंतु हम इसमें कहां तक सफ़ल हैं सोचने वाली बात यह है। मैं इस प्रयास को पूरी तरह असफ़ल भी नहीं मानता लेकिन विडंबना यह है कि जब इस प्रयास में शामिल लोग अनैतिक हरकतों जैसे बलात्कार, योन शोषण के अपराधों में लिप्त मिलते हैं तो सारे प्रयास की सार्थकता विलुप्त हो जाती है।
                                                                                                     हमने पत्रकारिता के माध्यम से समाज के अपराधों से लडते हुए तरुण तेजपाल को देखा है तो धर्म के माध्यम से समाज में नैतिकता का संदेश देते हुए आसाराम बापू को भी देखा है। यहां तक कि न्यायिक सेवा में ऐसे अपराधों के लिये कडी से कडी सजा सुनाने वाले न्यायाधिश महोदय को भी ऐसे अनैतिक प्रयास के आरोप से घिरा हुआ देखा है तो ऐसे में आम इंसान खासतौर पर लड्कियां खुद को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकती हैं।
                                                                                                     दिल्ली मुखर्जीनगर को  UPSC की तैयारी का गढ माना जाता है। यहां से देश के सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में चयनित होने के लिये लड्के लड्कियां दिन रात एक कर के अध्ययन करते हैं लेकिन जब ऐसे लडकों को राह चलते या क्लास के दौरान लडकियों पर भद्दे टिप्पणी मारते हुए सुनता हूं तो मन व्यथित हो जाता है कि क्या तैयारी सिर्फ़ परीक्षा में चयनित होने के लिये है? क्या इसका हमारे जीवन स्तर को उच्च बनाने से इसका कोई सरोकार नही है? अगर आप किसी जिले के जिलाधीश बन भी गये तो लड्कियों के साथ होने वाले छेडछाड, अभद्रता को कितने गंभीरता से लेंगे इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कोई लाल बहादूर प्रशिक्षण संस्थान आपको इस स्तर पर व्यवहारिक शिक्षा नहीं प्रदान कर सकता।
                                        निर्भया के पुण्यतिथी पर मुखर्जीनगर में नुक्कड नाटक होते हुए देखा। भीड के कारण देख तो नहीं पाया पर नाटक की आवाज जरुर बाहर आ रही थी। मुझे नही लगता कि नाटक के संवाद और द्र्श्य व्यक्ति के मनोव्रिती पर कोई गहरा असर डाल रहे थे । ज्यादातर लोग वहां इस इंतजार में खडे थे कि बलात्कार वाला सीन कब आयेगा और उसे किस ढंग से दिखाया जायेगा। संवाद भी ऐसे जैसे किसी के मौत का मजा लिया जा रहा हो जैसे नाटक में कुछ लड्के लडकियों को देखकर टिप्पणी करते हैं जैसे कडकती जवानी, मदमस्त चाल और उसे साइज संबधी वाहियात  कमेंट जिन्हें निहायत ही घटिया कहा जायेगा। मैंने कही भीड भाड वाले जगह पर ऐसे कमेंट नहीं सुने  और जब ऐसे संवादों पर ताली और सीटी बजने लगा तो्रुक नहीं पाया और खुद को और समाज को कोसता हुआ आगे बढ गया।
                                                                    होता तो यह है कि नाटक के माध्यम से जागरुकता फ़ैलाने के बाद उन्हीं में से कुछ लडके बाहर निकलते हैं और लड्कियों पर टिप्पणीयां करते हुए आगे बढ जाते हैं तो क्या फ़ायदा ऐसे सभाओं और जागरुकता का ? बलात्कार, योन शोषण, तेजाब फ़ेंकने की घटना ऐसे तमाम वारदात करने वाले कहीं बाहर से नहीं आते, ये हमलोगों में से हीं हैं जिनकी नैतिकता का लोप हो चुका है, जिन्हें सही गलत का ग्यान नहीं है, जिनकी स्वयंचेतनी मर चुकी है। ये किसी भी तबके से हो सकते हैं जरुरत है उन कारणों का पता लगाने की जिनकी वजह से ये घटनायें रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं । आदिमानव की अवस्था से हम अत्याधुनिक मानव की अवस्था में पहुंच गये हैं लेकिन मानसिक तौर पर हमारा पिछडापन जाने का नाम हीं नहीं लेता।
            जितने भी नैतिक इंसान कि मैने देखा है उसके अंदर एक भय होता है जो एक सकारात्मक भय है जैसे अपने इज्जत का भय, परिवार, मां-बाप के इज्जत का भय, नैतिकता के लोप का भय, और तमाम ऐसे भय जो उन्हेण गलत करने से रोकता है। जरुरत है कुछ ऐसी भावनायें मानवमात्र में पैदा करने की ताकि हर लडकी एक स्वतंत्र और खुली हवा में सांस ले सके और हजारों पुरुष के भीड में भी अकेले रहकर खुद को सुरक्षित समझे तो हीं हमारे पुरुष होने की सार्थकता सिद्ध होगी। तो आइये आज से पहले हम खुद को बदलें और फ़िर ये युग तो बदल हीं जायेगा।
(अभिषेक कुमार)