Thursday 25 December 2014

समय निकलता जाता है, वक्त बदलता जाता है, पर कुछ यादे ऐसी हैं जो हमेशा साथ रहती हैं। ऐसा सबके साथ होता है मुझे लगता है, इंसान हमेशा दुसरों को सम्झाने की प्रव्रत्ति में रहता है पर खुद नहीं समझ पाता। खास कर प्यारे-मोहब्ब्त वाले किस्से में ऐसा ज्यादा देखने को मिलता है। सबके जीवन में कोइ ना कोइ पसंद जरुर आता है उसका मिलना ना मिलना थोडा बहुत किस्मत का खेल है और थोडा अपने प्रयास का फ़ल है। ये भी एक पढाई और नौकरी की तरह सतत प्रक्रिया है जहां आपकी मेहनत के हिसाब से प्रोमोशन होता है। अपवाद स्वरुप कुछ ऐसे भी केस हैं जहां हर प्रयास के बाद भी कुछ नहीं होता। कुछ लोग अगला प्रयास करते हैं और कुछ लोग उसी को ले के घुटते हैं रहते हैं और देवदास माफ़िक रुप में आ जाते हैं ये प्यार का महानतम स्तर कहा जाता है पर मेरे अनुसार होता बेवकुफ़ाना है।
हां तो मैं समझाने की प्रकिया पर आता हूं इसमें मित्रमंड्ली पर पूरी जिम्मेदारी होती है और लगता है जैसे दुनिया की पूरी समझ इन्हें ही है और इन सब मामलों मे पीएच.डी की डीग्री हासिल कर के बैठे होते हैं। जैसे भाई वो तेरा इस्तेमाल कर रही है, भाई वो तेरे लिये बनी ही नहीं है, भाई उसके नसीब में तु है हीं नहीं, भाई तुझे उससे कहीं अच्छी मिलेगी और इसी तरह की की बातें समझाई जाती हैं पर दिल है कि मानता ही नहीं। ये समझाने वाले जितने भी होते हैं सब अपने अपने केस में इतने हीं नादान होते हैं जैसे कि पहला पर समस्या ये होती है कि पहले वाले ने खुल के अपनी बात सबके सामने रख दी है तो मित्रों के ग्यान का खजाना खुल जाता है और तरह तरह के सुझाव सामने आते रहते हैं।रहीम का एक दोहा मुझे हमेशा याद रहता है,
“रहीमन निज मन की व्यथा मन हीं राखो गोय
सुनी इठ्लैहें सबकोई बांटी ना लैहें कोय ॥”

मतलब आपकी समस्या जानकर हल कोई भले ना निकाले पर आपका मजाक बनाने से कोई पिछे नहीं हटेगा। इसका मतलब कतई ये नहीं है कि आप अपनी समस्या किसी को ना बतायें जरुर बतायें पर किसी ऐसे से जो उसे समझे और आपका सही मार्गदर्शन कर सके।