Saturday 24 October 2015

कुछ भी लिखने की मुसीबत.......


आज कुछ लिखने का मुड नहीं था, अचानक फेसबुक देखते हुए एक ऐसा पोस्ट सामने आया जिसकी उम्मीद उस इंसान से तो कतई नहीं थी जिसने उसे पोस्ट किया है। लिखा था कि तिलक, तराजू और तलवार ............. बाकि आप समझ गए होंगे क्योेंकि मायावती ने इस नारे को चुनाव में खूब भुनाया था। हो सकता है कि मेरे मित्र की मंशा किसी को भी ठेस पहुँचाने की नहीं रही हो पर क्या अभी का समय एक पढ़े-लिखे समझदार इंसान को ये लिखने की इजाज़त देता है? क्या उसकी लेखनी उससे ये सवाल नहीं करती कि उससे जुड़े लोगों की भावनाएं इससे आहत होंगी या नहीं?

आजकल समाज में नफरत का माहौल बढ़ता जा रहा है और इंटरनेट के माध्यम से इसे खूब हवा भी मिल रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जिसे जो मन कर रहा है लिख रहा है। तमाम ब्लॉग सामने आ गए हैं जो जातिगत और धार्मिक भावनाओं को समान रूप से भड़काने का काम कर रहे हैँ। अनपढ़ नासमझ लोगों को समझाना फिर भी आसान है, मुश्किल तो उनके साथ है जो हर तरह से पढ़े-लिखे समझदार हैं लेकिन धर्म की बात आते हीं उनकी सोचने समझने की शक्ति चली जाती है और वो गाय के बदले एक इंसान की मौत को जायज ठहराने लगते हैं भले हीं ताउम्र गाय को एक रोटी भी ना दी हो। ऐसे समय में मुझे मार्क्स की याद आती है कि उसने धर्म को अफीम क्यों कहा क्योंकि एक आम इंसान से इतनी उम्मीद करना गैरमुनासिब नहीं है कि इंसान के जान की किमत समझे हाँ एक अफीम के नशे में धुत्त इंसान कुछ भी कह सकता है।

किसी भी हत्या को कानूनन तब तक जायज नहीें ठहराया जा सकता जब तक वो आत्मरक्षा में ना किया गया हो और इसके अलावा हत्या के लिए भारतीय कानून में फाँसी तक की सजा का प्रावधान है। मेरे कुछ मित्रों को बड़ा ऐतराज है कि मैं कर्नाटक में मरे प्रशांत पुजारी और उत्तर प्रदेश में मरे महेश पर कुछ क्यों नहीं लिखता तो भाई मेरा उद्देश्य ना किसी धर्म विशेष की हिमायत करना है और ना हीें किसी की बुराई करना। अगर मुझे मौका मिला तो मैं उन सबके लिए लिखूँगा और लड़ूँगा जिन्हें धार्मिक भावनाओं के नाम पर मारा जा रहा है लेकिन मौत का बदला मौत से लेने और गाय के बदले किसी इंसान की जान ले लेने को कभी सही नहीं ठहराउंगा।

एक अच्छे लेखक का हमेशा मकसद होना चाहिए  समाज में समरसता कायम रखना, लोगों को एक-दूसरे जोड़ना, एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को समझने के लिए लोगों को प्रेरित करना लेकिन दूर-दूर तक ऐसा कोई नजर नहीं आता और जो लिखता उसे मिलती है लोगों की गालियां, धमकियां आदि।

कोई किसी भी धर्म, जाति में अपनी मर्जी से जन्म नहीं लेता और ना हीं उसे चुनने की आजादी होती है इसलिए कोई हिन्दू होता है कोई मुसलमान, कोई सवर्ण होता है कोई दलित। अब ये हमारे उपर है कि हम इसे समझे और सद्भाव से जिएं। आपका तिलक, तराजू और तलवार .............वाले जुमले का असर उसपर कतई नहीं होगा जो आपसे नफरत करता है क्योंकि वो तो दिमाग से पैदल हीं है लेकिन उस पर हो सकता है जो आपसे मोहब्बत करता है क्योंकि सब गाँधी जितने महान नहीं हो सकते कि एक थप्पड़ खा के दूसरा गाल आगे कर दें।

नफरत करने वाले और ऩफरत फैलाने वाले लोग कम हीं हैं तभी इतनी विविधता और विवादों के बावजूद इस देश की एकता कायम है और इंशाअल्लाह आगे भी कायम रहेगी। तमाम लिखने वाले मित्रों से निवेदन है कि सोच-समझ के लिखें आपके कंधों पर इस देश और इसके अखंडता व सौहाद्र का बोझ है जिसे कायम रखना है ताकि आगे कुछ ऐसा ना हो कि किसी अखलाक, प्रशांत, महेश, जीतेन्द्र, रेखा और उनके बच्चों के लिए लिखना पड़े।

(अभिषेक)


Sunday 18 October 2015

हाँ तुम वहीं थी..........

मैं पिताजी को छोड़ने स्टेशन पहुँचा था, छोटा स्टेशन होने के बावजुद वहाँ दो प्लेटफॉर्म थे। ट्रेन आने में अभी टाइम था इसलिए मैं मन बहलाने के लिए पेपर पढ़ने लगा और पापा भी कोई पत्रिका पलटने लगे। तबतक दुसरे प्लेटफॉर्म पर किसी ट्रेन के आने की सूचना हुई। स्टेशन पर हलचल बढ़ गई और बैठे यात्रियों में कुछ उठ कर ओवरब्रिज से दुसरे प्लेटफॉर्म पर जाने लगे। इसी बीच पिताजी की ट्रेन आ गई और मैं उनका सामान उठा कर उन्हें बैठाने लगा। सब सामान सेट कर के उन्हें बैठा दिया थोड़ी हीं देर बाद उनकी ट्रेन निकल गई। इसी बीच दुसरे प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन आकर लगी। चूँकि दोनों प्लेटफॉर्म में ज्यादा फासला नहीं था इसलिए मेरी जगह से दुसरी ट्रेन में बैठे लोग साफ नजर आ रहे थे। अचानक ट्रेन की खिड़की से एक जानी पहचानी सूरत झाँकती नजर आई, दिल की धड़कनें बढ़ने लगी। समझ नहीं आ रहा था कि जो मैं देख रहा हूँ वो सच है या काल्पनिकता?
उसे देखे अरसा बीत चुका था, बात किए जमाने हो गए थे, दूर-दूर से कोई अंदेशा नहीं था कि कभी इसे देख पाउँगा अब दिल और दिमाग में द्वंद शुरू हुआ। दिल कहता था कि मैं रेल की पटरियाँ पार कर उस ट्रेन में जाऊँ और से देखूँ कि क्या ये वहीं है? पर दिमाग कह रहा था कि ट्रेन का सिग्नल हो चुका है और अगर मेरे जाते हीं ट्रेन निकल गई तो? कहीं ये वो ना हुई जो मैं सोच रहा हूँ तो? उसने मेरी तरफ नहीं देखा तो? देख कर भी नहीं पहचाना तो? और फिर ये सब करने का फायदा क्या? ऐसे तमाम सवाल दिमाग में जाने कितने किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दिमार में दौड़ रहे थे।
अंत में जीत दिल की हुई, अब मुझे रेल की पटरियाँ नहीं बस उसकी चेहरा दिख रहा था और मैं उसकी तरफ कदम बढ़ा चुका था जैसे हीं मैं ट्रेन में घुसा ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया लेकिन मैं अपना कदम बढ़ा चुका और बिना उसे देखे उतरने का मेरा कोई फैसला नहीं था। मैं उसकी तरफ बढ़ रहा था साथ हीं ट्रेन भी अपनी रफ्तार बढ़ा रही थी।
और फिर मैंने उसे देखा, हमारी नजरें मिली, लेकिन ना तो उसके चेहरे के भाव बदले ना मेरे पर मैं उसे पहचान चुका था, हाँ ये वहीं थी, उसके साथ जुड़ी तमाम यादें दिमाग में घुमने लगी और एक सवाल भी कि क्या उसने मुझे पहचाना क्या मैं भी उसे याद हूँ यहीं सोचते हुए ट्रेन से उतरा। ट्रेन अपना रफ्तार काफी बढ़ा चुकी थी धूल, यादों और सवालों के बवंडर साथ उड़ रहे थे।


(अभिषेक)

Saturday 10 October 2015

समकालीन मुद्दों से भटकता बिहार चुनाव


देश और मीडिया के पटल पर आजकल बिहार चमक रहा है। मीडिया के बाजार में इसके भाव सबसे तेज हैं, जिधर देखो इसी की चर्चा चल रही है और आखिर हो भी क्यों ना यह विश्व के प्राचीनतम लोकतंत्र में से एक रहा है और इसी लोकतंत्र के महापर्व चुनाव का आयोजन भी हो रहा है। तो आलम यह है कि सभी राजनीतिक दुकानें सज गई हैं, सभी तरह-तरह के लोकलुभावन वादों से अपने ग्राहकों को लुभाने की कोशिश में लगे हैं। वादे भी एक से बढ़ कर एक हैं, कोई टी.वी. और स्कूटी देने की बात कर रहा है तो कोई आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बात कर रहा है तो कोई महिलाओं को और अधिक आरक्षण देने की बात कर रहा है वैसे भी वादों को क्या है जितनी मर्जी है कर लो अब तो जनता को भी पता है कि ये पूरे नहीं होने वाले।
लोगों को उनकी धर्म,जातियाँ याद दिलाई जा रही है, संस्कृतियों का वास्ता दिया जा रहा है, धार्मिक मान्यताओं के संरक्षण की बात की जा रही है। कोई सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए कमर कस कर तैयार है तो कोई चारा चोर से बिहार को बचाने की बात कर रहा है। अर्जुन की तरह मछली के आँख का निशाना लेकर तीर पे तीर छोड़े जा रहे हैं, ये बात अलग है कि इन तीरों से कोई छलनी हो रहा है तो वो है बस बिहार। बयानों के तीर इतने तीखे हैं कि हर मर्यादा को लाँघ चुके हैं, शैतान से लेकर बरहमपिचाश(ब्रह्मपिशाच) तक को चुनावी मैदान में उतारा जा चुका है ना जाने और कौन कौन उतरेगा ये भविष्य तय करेगा।
अब सवाल यह है कि आजादी के 67 साल बाद भी क्या चुनाव के मुद्दे यहीं होने चाहिए? क्या जातिगत चुनाव के समीकरण से बिहार कभी बाहर नहीं निकल पाएगा? गरीबों और दलितों के उद्धार का मुद्दे से आखिर कब तक इन्हें बेवकूफ बनाया जाएगा? राजनीतिक दल और नेतागण वर्षों से ऐसा हीं करते आए हैं और शायद आगे भी करते रहें। अब मतदाताओं को जागरूक होना होगा। समय आ गया है कि चुनावी मैदान में उतरने वाले हर दल और नेता से यह सवाल किया जाए कि बिहार में रोजगार के कितने साधन विकसित किए जाएंगे? लोगों के पलायन को रोकने के क्या उपाय किए जाएंगे? प्राथमिक शिक्षा के गुणवत्ता को बढ़ाने के क्या प्रयास होंगे जिससे यह मिड डे मिल तक सिमित होकर ना रह जाए? उच्च शिक्षा के कितने संस्थान खोले जाएंगे कि बिहार के छात्रों को दाखिले के लिए अन्य राज्यों में ना भटकना पड़े? फैलते हुए शराब के ठेकों और युवाओं में बढ़ते हुए नशाखोरी की प्रवृत्ति को रोकने के ठोस उपाय होंगे या नहीं? बिहार में पर्यटन उद्दोग की असीम संभावना होते हुए इसे विकसित करने के क्या प्रयास किए जाएंगे? प्रशासनिक कार्यों के लिए हर चरण पर होते भ्रष्टाचार और लालफीताशाही को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे? सवाल इसके अलावे भी बहुत हैं।
क्या कारण है कि सरकार बदल भी जाएं समस्याएं नहीं बदलती हर बार कतार लगाकर मतदाता इसी उम्मीद में वोट देने जाता है कि कुछ सकारात्मक परिवर्तन आएगा, स्थितियाँ बेहतर होंगी लेकिन चुनाव के बाद स्थिति जस की तस रह जाती है। रैली के बाद गायब होने वाले शामियाना और टेंट की तरह नेता और उनके वादे दोनों गायब हो जाते हैं। अगर लोकतंत्र में असली ताकत जनता के हाथ में है तो जरुरत है कि इस चुनाव में मतदाता अपने ताकत को समझे और दलों को इसका एहसास कराए। हर वोट माँगने वाले के सामने सवाल रखे और जबाब माँगे फिर सही प्रतिनिधी का चुनाव करे तभी तस्वीर बदलेगी और कुछ ताजा बयार बहेगी।  
(अभिषेक)


Sunday 4 October 2015

गाँधी का चम्पारण
निर्देशक : विश्वजीत मुखर्जी
गाँधी का चम्पारण दास्तान है चम्पारण के किसानों के मौजूदा हालात की, उनके संघर्षयुक्त जीवन की, उनके मरते हुए सपनों की। 1917 में पं.राजकुमार शुक्ल के अथक प्रयास के बाद चम्पारण के किसानों के हालात का जायजा लेने गाँधी जी चम्पारण पहँचे। वहाँ तीनकठिया प्रणाली से युक्त कृषि पद्धति लागू थी जिसमें किसानों को 20 कठ्ठे में से 3 कठ्ठे पर नील की खेती करनी पड़ती थी, किसानों का अत्याचार सहना पड़ता था। गाँधी जी ने जगह जगह जाकर हालात का जायजा लिया और रिपोर्ट तैयार की। अंग्रेज अधिकारी ने गाँधी को चम्पारण से चले जाने का फरमान जारी कर दिया जिसे गाँधी ने मानने से इनकार कर दिया और इस तरह सत्याग्रह की शुरूआत हुई।
अपनी चम्पारण यात्रा के क्रम में गाँधी जी ने कई विद्दालय खोले, कस्तूरबा गाँधी यहाँ आकर रहीं। आज वह सबकुछ उपेक्षा का शिकार बना हुआ है। गोरख बाबू का घर जहाँ गाँधी जी पहली बार रूके थे वह घर जीर्ण शीर्ण अवस्था में पहुँच गया है। लगभग ऐसे हीं हालात सभी जगह के हैं। बड़हरवा का विद्दालय जहाँ टूटा हुआ चरखा अभी भी खुद को संरक्षित करने की बाट जोह रहा है। यहाँ कभी बापू के पैरों के निशान भी थे जो अब ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। भितिहरवा आश्रम, हजारीमल धर्मशाला(बेतिया) देखने से लगता हीं नहीं कि ये बापू की विरासत स्थली है।
सरकार ने इन स्थलों को संरक्षित करने के लिए समय समय पर आर्थिक अनुदान भी दिया जिसका बंदरबाँट हो गया और संरक्षण धरा का धरा रह गया। 2017 में सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा गाँधी सर्किट को पूरा करने के लिए 100 करोड़ की राशि खर्च करने की योजना है। जानकार बताते हैं कि हमेशा की तरह यह राशि भी उपर हीं उपर खर्च हो जाने हैं और वास्तविक जगह पर नहीं पहँच पाएगा। बापू ने हमें सच सोचने की, दूसरों के कल्याण करने की प्रेरणा दी। जिनका पूरा जीवन देश और मानवता के लिए समर्पित था उनके आदर्श हम भूल चुके हैं और अपने स्वार्थपूर्ति में लगे हैं।
बापू के विरासत की स्थिति ऐसी नहीं कि पर्यटक वहाँ जा सकें। कृष्णा राय(आश्रम के माली) एक डायरी दिखाते हैं जो पर्यटकों के निराशा को दर्शाती है। इस डॉक्यूमेंट्री के लिए कई लोगों से बात किया गया है जिसमें पी.के.मुखर्जी(सचिव आइ.सी.एच.आर.) व वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन के नाम प्रमुख हैँ।
फिल्म का संपादन पक्ष अतिमहत्वपूर्ण है जिसमें गाँधी के चम्पारण आंदोलन के इतिहास को आवाज से संबोधित करते हुए वर्तमान में किसानों के हालात को दिखाया गया है। बापू के चम्पारण सत्याग्रह से आजादी के इतने वर्षों बाद भी चम्पारण के किसान अपने सुनहरे भविष्य का सपना अपनी आँखो में समेटे गरीबी में जीवन यापन करने को मजबूर हैं। अंग्रेज निलहों के अत्याचार तो खत्म हो गए लेकिन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल ये किसान कई तरह के अत्याचार सहने को अभिशप्त हैं और किसी दूसरे गाँधी की राह देख रहे हैं।
(अभिषेक)

Thursday 20 August 2015

             पर्यावरण ओर समकालीन समस्याएँ

हर बार से अलग इस बार बात पर्यावरण पर कर रहा हूँ जिसके बारे में हम रोज अन्य मुद्दों की तरह बात नहीं करते। हमारे देश में हर वर्ग के बहस का मुद्दा अलग-अलग है, अर्थात मुद्दों में भी वर्ग विभेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। जहाँ छोटे बच्चों के बहस का मुद्दा उनका कार्टून सीरियल और वीडियो गेम तक सीमित है वहीं उनसे थोड़े बड़े बच्चे फेसबुक पर अपना स्टेटस अपडेट करने और नए दोस्त बनाने में व्यस्त हैं। जो लोग किशोरावस्था पार कर चुके हैं वो नए बाइक, गैजेट, वीकेंड पर फिल्में देखने, नाइटक्लब जाने और कभी कभी क्रांतीकारी भावना वाली राजनीति की बात करते हैं। इस उम्र के लोग देश के दुर्दशा पर बात करके अपना समय नहीं बर्बाद नहीं करना चाहते। जो एक वर्ग नौकरी में लगा हुआ है वो अपने पारिवारिक बोझ तले इस कदर दबा हुआ है कि किसी तरह के मुद्दे पर बहस का समय हीं नहीं जुटा पाते। जो वृद्द वर्ग है वो अपने स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और अकेलेपन से जुझ रहे हैं। अगर थोड़ा बहुत समय मिलता भी है तो आजकल के समय को कोसने में निकल जाता है, पर्यावरण का तो जो होना है होगा हीं।
फिर भी आम जन-जीवन में अधिकांश मुद्दों पर कभी ना कभी बहस तो हो हीं जाती है लेकिन पर्यावरण एक ऎसा मुद्दा है जो बिल्कुल अलग-थलग है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संतुलन के अथक प्रयास हो रहे हैं परंतु ये तब तक निरर्थक हैं जब तक आम लोगों को इससे जोड़ा ना जाए और सार्वजनिक रूप से इसके फायदे-नुकसान के बारे में लोगों से चर्चा ना की जाए।
हम अपने चारों तरफ एक कृत्रिम पर्यावरण बनाने में जुटे हुए हैं। हमारे पास हर मौसम से लड़ने का हथियार है(आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग के लिए), मौसम चाहे कितना भी प्रतिकूल हो हम अपने अनुसार उसे बदल सकते हैं। जहाँ ठंढ़ से बचने के लिए हमारे पास हीटर, ब्लोअर तो वहीं गर्मी से बचने के लिए कूलर, ए.सी. जैसे तमाम इंतजाम मौजूद हैं जिसका इस्तेमाल हम जम के करते हैं बिना इस बात की परवाह किए कि ये साधन हमारे पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचा रहे हैं।
आजकल सामान्य आय वर्ग के लोगों का भी घर में ए.सी. लगवा लेना सामान्य बात है। यह घर को तो जरूरत के मुताबिक ठंढ़ा कर देता है पर कभी आप ए.सी. के बैकसाइड खड़े होकर अनुभव कीजिएगा कि कितनी गर्म हवा इससे निकलती है। ये हवाएं वातावरण को गर्म करने के लिए काफी हैं। ये सामान्य अनुभव की बात है, जरूरी नहीं कि इसकी जानकारी किताबों में सी.एफ.सी. के उत्सर्जन और ओजोनमंडल के क्षरण के बारे में हीं पढ़ कर मिले।
ए.सी. में हमेशा रहने वाले बच्चे तापमान थोड़ा भी अधिक होने पर असहज हो जाते हैं, उन्हें कई तरह के रिएक्शन होने लगते हैं जो शरीर के प्रतिरोधक क्षमता कम होने का प्रतीक है। इसके अलावा नई जगह, ऩए माहौल को लेकर हमारा शरीर जल्दी अभ्य़स्त नहीं हो पाता और बिमारीय़ाँ हावी हो जाती हैं।
गाँव में बुजुर्गों के मुँह से मैंने हमेशा सुना है, जैसे हीं गर्मी बढ़ती है वो कहते हैं आज तो बड़ी उमस है लगता है बारिश होगी और शाम तक बारिश हो भी जाती थी लेकिन आजकल हफ्तों उच्च तापमान और उमस बनी रहती है लेकिन बारिश का नामोनिशान नहीं मिलता। भूगोल में मैंने पढ़ा है कि कुछ वर्षा स्थानीय प्रभाव के कारण भी होती है जिसमें तापमान उच्च रहने पर वाष्पीकरण की दर तेज होती है और वायुमंडल में संघनन के फलस्वरूप वर्षा होती है। लेकिन इसके लिए स्थानीय़ स्तर पर झील, तालाब का होना आवश्यक है जो कि हमारे पास दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं तो वर्षा कहाँ से हो। सारे झील, तालाब भरकर हमने अपने जरूरत के मुताबिक खेत, घर बनाएँ हैं और अपने स्वार्थ की पूर्ति की है।
पर्यावरण एक ऎसी संरचना है जिसके साथ किए गए छेड़खानी का प्रभाव तुरंत स्पष्ट नहीं होता है, यह आने वाले वर्षों में परिलक्षित होता है। विश्व स्तर पर किए गए शोध से यह स्पष्ट है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है जिससे आने वाले दिनों में ग्लेशियर के बर्फ पिघल जाएंगे, समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा और कई टापू और देश डूब जाएंगे।
जरूरत है हर स्तर पर लोगों को इस खतरे से सावधान किया जाए और पर्यावरण के प्रति एक नरम दृष्टिकोण बनाने की प्रेरणा दी जाए। स्कूल स्तर पर पर्यावरण अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाए। संतुलित और धारणीय विकास पर बल दिया जाए ताकि हम भविष्य के लिए इसे सुरक्षित रख सकें।
                                                             

      (अभिषेक कुमार)

Friday 12 June 2015

मोहब्ब्त की ना जाने आजतक कितनी परिभाषा दी गई है और आगे भी दी जायेगी। मैनें भी अपने मित्रों के बातचीत, थोडी बहुत समाजिकता और फ़िल्मों के माध्यम से जो कुछ समझा है वो बता रहा हूं। दरअसल बात काफ़ी समय पहले की है जब मेरे एक दोस्त ने पुछा था कि आखिर पता कैसे चलेगा कि उसे किसी से मोहब्ब्त है और असली है क्योकि शुरूवात तो सबके साथ ऐसे ही होती है जब कोई अच्छा लगने लगता है अचानक ।
तब तो मैने लम्बा सा डायलौग मार के उसकी शंका का समाधान किया था कि "जब तुम किसी पार्टी में हज़ारो लोगो के साथ हो और उस समय भी तुम्हरा मन वहां ना रह के किसी और की याद में मे हो और मन करे काश वो इस समय तुम्हारे साथ होता तो समझ लेना तुम्हें उस से प्यार है।" तब तो मैनें ऐसा कह के अपने मोहब्ब्त के ग्यान का लोहा मनवाया था।
समय बीतता गया ग्यान की परते खुलती गई और नए अनुभवो से सामनी हुआ। मेरे हिसाब से लाइफ़ इतनी छोटी है और दुनिया इतनी बडी कि एक जीवन में हर तरह के अनुभव लेना नामुमकिन है तो दुसरो के अनुभवो से भी कभी कभी काम चलाना पड्ता है। अब जाके लगता है कि मोहब्ब्त भी एक आदत है जैसे हमारी अलग अलग आदते होती है जिनके बिना हमारा काम नही चलता, अगर उस आदत से थोडी दूरी हो जाये तो मन बेचैन होने लगता है, उसके पास जाने को मन करता है कुछ कुछ ऐसा हीं।
जरुरी नही कि कोई मेरी बात से सहमत हो लेकिन ऐसे ही लगता है कि जरुरी नही कि मोहब्ब्त एक ही बार हो।जब जब आप किसी से ऐसे जुडे कि आपसे उसकी रोज बातें हो, हर तरह की भावनाओ का आदान प्रदान हो, कोइ एक दिन भी उसके बगैर ना गुज़रे तो धीरे धीरे उसकी आदत सी बन जाती है। यही चीज परिवार के साथ भी होती है। हम एक परिवार में रहते हैं सबके साथ रोज की बातचीत हंसना बोलना, उठना बैठना, और बहुत सारा समय उनके साथ बिताने की एक आदत सी बन जाती है और फ़िर उनके बगैर रहना मुश्किल लगने लगता है।
यही बात एक लड्का लड्की के बीच भी होती है। हो सकता है आप बचपन में किसी और से जुडे हो समय के साथ दुरीयां बढी हो बाते कम हो गई हो फ़िर किसी और से आप मिले हो और उससे आपका रिश्ता कुछ ऐसा बन गया हो कि उसके बिना जीवन मुश्किल लगने लगा हो तो ये कभी भी कितनी बार भी हो सकता है बस निर्भर इस बात पे करता है कि कितने नये लोगो से आप एक ही तरह रह पाते है और किसको अपने जीवन में कितना समय देते हैं।
आप अगर किसी से दिल से बहुत ज्यादा जुडे हो तो एकबार बात कम करना शुरू कर के देखिये शुरू शूरु में तो काफ़ी बुरा लगेगा पर धीरे धीरे जब आपकी आदत कम होती जायेगी आप उसके लिये सामान्य होते जायेंगे हांलाकि ये करना काफ़ी  मुश्किल है। कभी कभी ये काफ़ी कन्फ़्यूजिंग मामला लगता है पर मैंने अभी तक इसे ऐसे ही समझा है। तो चाहते हैं कि दर्द कम हो जीवन में किसी तरह की आदत नही लगाइये। 
॥ना आदत होगी और ना किसी चीज से मोहब्ब्त होगी॥ 

Saturday 18 April 2015

आज फिर फेसबुक टाइमलाइन पर उनकी तस्वीर नज़र आई और दिल की धड़कने एक बार और बढ़ने लगी । फिर शुरू हुई लड़ाई मेरे "इड " और "इगो" के बीच । अब ये न पुछुइएगा की ये दोनों कौन है उसके लिए मुझे फिर "फ्रायड" को बीच में लाना पड़ेगा और सारा मामला उलझ जायेगा जो मैं कतई नहीं चाहता। तो मेरा "ईड" मुझे कह रहा था की मित्र निवेदन भेजो और मेरा "इगो" मुझे रोक रहा था की नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकते, तुम किसी को मित्र निवेदन  कैसे भेज सकते हो जिसे तुम कभी ना मिले और न कभी बातचीत की है लेकिन "ईड" कहता की बातचीत तो तब होगी जब तुम उसके मित्र बन जाओगे और इसके लिए निवेदन भेजना तो आवश्यक है।
दरअसल ये मोहतरमा हमारी एक म्यूच्यूअल फ्रेंड है फेसबुक पर और जब उनका कोई पोस्ट मेरे मित्र के द्वारा लाइक किया जाता है तो मुझे भी दिख जाता है। और इस बार जब फिरसे उनको तस्वीर देखी  तो रहा नहीं गया और अपने "इगो" को लात मार के मैंने उन्हें मित्र निवेदन भेज दिया अब क्या परिणाम आता है ये तो बाद की बात है ।
आये दिन जब पेपर में ये खबरे पढता हु कि  कोई लड़का और लड़की फेसबुक पर मिले उनमे चैट हुआ और फिर प्यार और फिर शादी तो मेरा विश्वास  मजबूत हो जाता है की कभी न कभी मेरे साथ भी ये जरूर  होगा  और दिल खुशियो से भर जाता  है । वैसे तो मैंने अलग से भी पैरवी लगाई है उस  मित्र के माध्यम से लेकिन कुछ काम होता हुआ नज़र नही आता ।
ऐसा नही है की मोहतरमा ने मेरा निवेदन ना देखा हो या मेरे मित्र से  ना पूछा हो की ये कौन है और आपका मित्र कैसे है लेकिन अनजान लड़के का निवेदन स्वीकार करे भी तो कैसे ? मैं उसकी मनोदशा समझ सकता हु इसीलिए कोई दबाव नही बनाना चाहता कहते हैं न मोहब्बत में सकारात्मक रहना काफी आवश्यक है वैसे भी नकारात्मक सोच से ही क्या घंटा हासिल होना है ।
वैसे लाखो लोग रोज फेसबुक पे लाखो ऐसे लोगो को मित्र निवेदन भेजते है जिन्हे वो न जानते  है न कभी मिल सकते है न कभी आमने सामने देख सकते है । पुरे विश्व के लोगो को फेसबुक एक बड़ा आसान माध्यम उपलब्ध करा रहा है जहा वो मिल सके एक दूसरे को समझ सके अपनी क्षमताओ का विकास कर सके कुछ नहीं तो अपनी टाइपिंग स्पीड ही बढ़ा सके । मेरे गाँव में मोबाइल रिचार्ज की दूकान वाले फेसबुक का अकाउंट खोलने के 40 से 50 रूपये लेते है और एक मित्र निवेदन भेजने के 10 रूपये और ये बताने वाली बात नहीं है की ये निवेदन केवल लड़कियों को हीं भेजा जाता है भले वो फेक हो । इस तरह फेसबुक रोजगार भी उपलब्ध करा रहा है ।
देखिये बातो हीं  बातो में मैंने इसकी सार्थकता पर भी बहस छेड़ दिया । तो इतने लोगो के बीच अगर मैंने भी किसी से उम्मीद लगाई हुई है तो आप ही बताइये ये गैरवाजिब तो नहीं तो अगर मित्र निवेदन स्वीकार हो जाता है तो फिर से एक कहानी बनेगी और उसको आपके सामने लाऊंगा इसी माध्यम से तब तक के लिए फेसबुक पर चैटियाते रहिये जिंदाबाद ॥ 

Tuesday 13 January 2015

एक नारा सुना था, या यूं कहलें कि कई बार लगाया भी है  कि "हम बदलेंगे युग बदलेगा" किन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि हम कब बदलेंगे और ये युग कब बदलेगा। तमाम स्वयंसेवी संस्थायें, जागरुकता मंच, एनजीओ, आदि अनेक माध्यमों  यथा नुक्कड नाटक, प्रचार सभा, बैनर, पोस्टर से जागरुकता फ़ैलाने का प्रयास करते हैं परंतु हम इसमें कहां तक सफ़ल हैं सोचने वाली बात यह है। मैं इस प्रयास को पूरी तरह असफ़ल भी नहीं मानता लेकिन विडंबना यह है कि जब इस प्रयास में शामिल लोग अनैतिक हरकतों जैसे बलात्कार, योन शोषण के अपराधों में लिप्त मिलते हैं तो सारे प्रयास की सार्थकता विलुप्त हो जाती है।
                                                                                                     हमने पत्रकारिता के माध्यम से समाज के अपराधों से लडते हुए तरुण तेजपाल को देखा है तो धर्म के माध्यम से समाज में नैतिकता का संदेश देते हुए आसाराम बापू को भी देखा है। यहां तक कि न्यायिक सेवा में ऐसे अपराधों के लिये कडी से कडी सजा सुनाने वाले न्यायाधिश महोदय को भी ऐसे अनैतिक प्रयास के आरोप से घिरा हुआ देखा है तो ऐसे में आम इंसान खासतौर पर लड्कियां खुद को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकती हैं।
                                                                                                     दिल्ली मुखर्जीनगर को  UPSC की तैयारी का गढ माना जाता है। यहां से देश के सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में चयनित होने के लिये लड्के लड्कियां दिन रात एक कर के अध्ययन करते हैं लेकिन जब ऐसे लडकों को राह चलते या क्लास के दौरान लडकियों पर भद्दे टिप्पणी मारते हुए सुनता हूं तो मन व्यथित हो जाता है कि क्या तैयारी सिर्फ़ परीक्षा में चयनित होने के लिये है? क्या इसका हमारे जीवन स्तर को उच्च बनाने से इसका कोई सरोकार नही है? अगर आप किसी जिले के जिलाधीश बन भी गये तो लड्कियों के साथ होने वाले छेडछाड, अभद्रता को कितने गंभीरता से लेंगे इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कोई लाल बहादूर प्रशिक्षण संस्थान आपको इस स्तर पर व्यवहारिक शिक्षा नहीं प्रदान कर सकता।
                                        निर्भया के पुण्यतिथी पर मुखर्जीनगर में नुक्कड नाटक होते हुए देखा। भीड के कारण देख तो नहीं पाया पर नाटक की आवाज जरुर बाहर आ रही थी। मुझे नही लगता कि नाटक के संवाद और द्र्श्य व्यक्ति के मनोव्रिती पर कोई गहरा असर डाल रहे थे । ज्यादातर लोग वहां इस इंतजार में खडे थे कि बलात्कार वाला सीन कब आयेगा और उसे किस ढंग से दिखाया जायेगा। संवाद भी ऐसे जैसे किसी के मौत का मजा लिया जा रहा हो जैसे नाटक में कुछ लड्के लडकियों को देखकर टिप्पणी करते हैं जैसे कडकती जवानी, मदमस्त चाल और उसे साइज संबधी वाहियात  कमेंट जिन्हें निहायत ही घटिया कहा जायेगा। मैंने कही भीड भाड वाले जगह पर ऐसे कमेंट नहीं सुने  और जब ऐसे संवादों पर ताली और सीटी बजने लगा तो्रुक नहीं पाया और खुद को और समाज को कोसता हुआ आगे बढ गया।
                                                                    होता तो यह है कि नाटक के माध्यम से जागरुकता फ़ैलाने के बाद उन्हीं में से कुछ लडके बाहर निकलते हैं और लड्कियों पर टिप्पणीयां करते हुए आगे बढ जाते हैं तो क्या फ़ायदा ऐसे सभाओं और जागरुकता का ? बलात्कार, योन शोषण, तेजाब फ़ेंकने की घटना ऐसे तमाम वारदात करने वाले कहीं बाहर से नहीं आते, ये हमलोगों में से हीं हैं जिनकी नैतिकता का लोप हो चुका है, जिन्हें सही गलत का ग्यान नहीं है, जिनकी स्वयंचेतनी मर चुकी है। ये किसी भी तबके से हो सकते हैं जरुरत है उन कारणों का पता लगाने की जिनकी वजह से ये घटनायें रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं । आदिमानव की अवस्था से हम अत्याधुनिक मानव की अवस्था में पहुंच गये हैं लेकिन मानसिक तौर पर हमारा पिछडापन जाने का नाम हीं नहीं लेता।
            जितने भी नैतिक इंसान कि मैने देखा है उसके अंदर एक भय होता है जो एक सकारात्मक भय है जैसे अपने इज्जत का भय, परिवार, मां-बाप के इज्जत का भय, नैतिकता के लोप का भय, और तमाम ऐसे भय जो उन्हेण गलत करने से रोकता है। जरुरत है कुछ ऐसी भावनायें मानवमात्र में पैदा करने की ताकि हर लडकी एक स्वतंत्र और खुली हवा में सांस ले सके और हजारों पुरुष के भीड में भी अकेले रहकर खुद को सुरक्षित समझे तो हीं हमारे पुरुष होने की सार्थकता सिद्ध होगी। तो आइये आज से पहले हम खुद को बदलें और फ़िर ये युग तो बदल हीं जायेगा।
(अभिषेक कुमार)