Friday 3 November 2023

                                    अथ श्री मसाला फिल्म कथा 




कुछ दिनों से मैं खुद को कुछ ज़्यादा ही गंभीर, विवेकी, बुद्धिजीवी टाइप से समझ रहा था, लग रहा था कि मेरी पसंद थोडी अलग है, सामान्य चीजें और बाज़ारवाद मुझे आकर्षित नहीं करते और सिनेमा के मामले में तो मेरी पसंद बिलकुल ही जुदा हो गई है और भारी भरकम फिल्में मुझे ज़्यादा पसंद आ रही हैं जिसका जिक्र लोगों के बीच कम हो रहा है ऐसे सिनेमा का नाम लेकर जैसे "काफ़िर की नमाज़, एक रूका हुआ फैसला, सलीम लंगड़े पे मत रो, मंटो " मैं लोगों के बीच कुछ अलग सा ही लगता हूँ। मैं सामान्य से खुद को अलग मान कर एक अलग ही जोन में खुश चल रहा था। 


फिर एक रात मुझे एहसास हुआ कि ऐसा भी क्या हो गया है मुझे आखिर क्यों मसाला फिल्में मुझे पसंद नहीं आ सकती, क्यों मैं गदर टू में सन्नी देओल को फिर से हैंडपैंप उखाड़ते देख चिल्ला नहीं सकता, क्यों मैं पठान में सलमान खान की इंट्री पर सीट पर चढ़ के नाच नहीं सकता, क्यों मुझे जवान फिल्म के करोड़ों की कमाई भी सिनेमाघर के तरफ खींच नहीं सकती।


ऐसे में मैं अचानक नींद से जागा "गैंग्स ऑफ वासेपुर" को याद कर के खुद को कोड़े मारे और आधी रात को "पठान" लगा कर देखने बैठा कि शुरुआत यही से की जाए और देश के आम दर्शकों के साथ कदम से कदम मिला कर चला जाए, और खुद से खुद को दिया हुआ आउटडेटेड/ इंटेलेक्चुअल का अवार्ड खुद को वापस कर दिया जाए।


भाई साहब मैं बता रहा हूँ मैं कोई दुनिया से अलग तो नहीं हूँ लेकिन इतना धैर्यवान भी नहीं हूँ, मुझे और धैर्य की आवश्यकता है कि मैं इस फ़िल्म को पूरा कर सकूँ, फिल्म के संवाद मुझे धांय धांय एक्शन दृश्य में चल रहे गोलियों के तरह लग रहे थे, मैं फ़िल्म के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था, मैं सोच रहा था कि बंद कर दूँ फिर सोच रहा था कि क्यों फिल्में ऐसी ही तो होती हैं, फिल्में ऐसी ही तो होनी चाहिए फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है, ऐसा क्या हो गया है मुझे, बीच में उठ के मैंने पानी पीया, खुद को कोसा और अपने धैर्य की परीक्षा उत्तीर्ण करने की कोशिश में फिल्म को पूरा किया। 


इस हादसे के बाद फिर से वासेपुर के तर्ज पर खुद को कोडे मारे और खुद को इसकी सजा दी, अब मैं गदर टू और जवान देखने की हिम्मत जुटा रहा हूँ ताकि आम दर्शकों की भीड़ में शामिल हो सकूँ, अगले किस्त में किसी और मसाला फिल्म की कहानी लेकर आऊंगा, मेरे लिए दुआ कीजिएगा। 


धन्यवाद

Thursday 12 October 2023

           सोशल मीडिया बनता जा रहा है सॉफ्ट पॉर्न का अड्डा

एक बड़ी संख्या में देश की जनता को लग रहा है कि सारे लाइक्स और फौलोवर नंगई से ही आ रहे हैं, और कहीं ना कहीं उनकी ये सोच ठीक भी है, क्योंकि लगभग लोग ऐसे सफलता पा भी रहे हैं, और बात ये ठीक भी है कि इंसान तो नंगा पैदा होता है तो नंगई में शर्म कैसी, इंसान नंगा ही पैदा होता है, कपड़े इंसानों ने बनाया है वरना नंगा होना इज नैचुरल।


अब सबसे जरूरी है पैसा, पहले सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल, फिर फोलोवर, लाइक्स की संख्या में बढोतरी और फिर इंन्फ्लुएंसर का तमगा और फिर कमाई और वो चाहे जैसे हो। कुछ लोग अपने कन्टेंट से भी कमा रहे हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम और उसमें मेहनत ज़्यादा है, अब मेहनत ही करना होता तो पढाई लिखाई करते, यूपीएससी की तैयारी करते फिर सोशल मीडिया पर क्या कर रहे हैं। 


जीवन का सिद्धांत है कम मेहनत और कम समय में ज़्यादा कमाई, लीक से हट कर कुछ करना जिसे लोग पसंद करें, और सबसे आसान और लीक से हट कर यही है, अब ये अलग बात है ज़्यादातर लोग इसी तरीके से लीक से हट रहे हैं।


दिक़्क़त उनके साथ है जो ना अभी तक नंगई के प्रति सहज नहीं हुए हैं, अब वो सेमी नंगई के साथ कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन अभी सामाजिक बंधनों से मुक्त नहीं हुए हैं इस वजह से कमाई से अब तक दूर हैं और पारंपरिक तरीके से नौकरी कर के जीवन चला रहे हैं और कसक ये है कि यार इतने आसान तरीके से जब कमा सकते हैं तो ये कोई ये पारंपरिक तरीका क्यों ले, वो क्यों ना ले। 


परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन ये सब पुरानी बातें हो गई, देश का बहुत बड़ा वर्ग है जो पढाई लिखाई से वंचित रहा है, रोज़गार से दूर है, उनके लिए अगर ये कमाई का जरिया है तो ठीक ही है बाकी हमारे जज करने से उनका जीवन तो चलेगा नहीं।

सबसे ज़्यादा संख्या में हमारे यहां पॉर्न देखा जाता है और अब सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक ये सॉफ्ट पॉर्न के रूप में पहुंच रहा है तो क्या ही दिक़्क़त है, और ये बनाने वाले कहीं बाहर के नहीं हैं आस पास के हैं और बच्चों से बूढों तक इसकी पहुंच आसानी से हो रही है। 


एक हमारी तरह के भी लोग हैं जो ये सब लिखने के अलावा कुछ कर नहीं सकते हैं तो लिख रहे हैं, इसे जिस रूप में लेना है लिया जाए बाकी तो "मेरा देश बदल रहा है और कम से कम इस मामले में तो बहुत तेजी से आगे बढ रहा है।"

 

विकास की राह ताकते किशनगंज के पंचायत, कहां है विकास ?

देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक बिहार और बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका सीमांचल। बिहार के सबसे उत्तर-पूर्वी छोर पर बसा सीमांचल का जिला किशनगंज जो एक तरफ बंगाल से जुड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ नेपाल से। किशनगंज जिले में कुछ गांव तो ऐसे हैं जो बंगाल से ज्यादा जुड़े हुए हैं और बिहार से कम। बिहार की बदहाली का आलम अगर आप जानते हैं तो सोचिए बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका भला कितना बदहाल होगा।

बिहार का परिसीमन इस प्रकार का है कि किशनगंज जिला और लोकसभा क्षेत्र का गणित समझने के लिए आपको पेन और पेपर लेकर बैठना होगा। किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में 6 विधानसभा क्षेत्र हैं किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंज, ठाकुरगंज, बैसी और आमौर। अब बैसी और अमौर किशनगंज जिले का नहीं पूर्णिया का हिस्सा हैं। किशनगंज जिले में इनमें 4 विधानसभा क्षेत्र हैं किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंज और ठाकुरगंज। किशनगंज जिले में सात प्रखंड हैं, किशनगंज विधानसभा में दो किशनगंज और पोठिया, कोचाधामन में एक कोचधामन, बहादुरगंज में बहादुरगंज और टेढ़ागाछ और ठाकुरगंज में ठाकुरगंज और दिघ्घलबैंक। अब परिसीमन का ऐसा आलम है कि किशनगंज प्रखंड के 6 पंचायत कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र में हैं।

विकास का यहां ऐसा आलम है वो कहां है खोजने से भी नहीं मिलेगा। सरकार की तमाम योजनाएं यहां आते आते दम तोड़ देती हैं। किशनगंज प्रखंड का पंचायत पिछला, वार्ड नंबर 15, ये महादलित की बस्ती है और इस वार्ड में एक भी शौचालय नहीं है। बरसात के दिनों में यहां इतना पानी भर जाता है कि गर्दन तक पानी पार कर के आप अपने घर में जाना संभव हो पाता है। यहां के वार्ड सदस्य की मानें तो पेड़ पर रहने के नौबत आ जाती है। बरसात में यहां रहने वाले लोग बांस को जोड़ कर ऊंचा कर घर बनाते हैं या रोड पर रहने चले जाते हैं। यहां एक भी घर में उज्ज्वला योजना के तहत गैस नहीं मिला है। ये अभी भी लकड़ी पर खाना बनाते हैं लेकिन आप इनसे जाएं तो चाय जरूर पिलाते हैं। ये इतने अभाव में हैं कि कोई नेता इनसे झूठे वादे कर के वोट ले सकता है। पिछले कई सालों से ये यहीं पर हैं लेकिन विकास से अनंत काल की दूरी पर हैं। ये जीवन के मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित हैं तो शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क तक तो बात भी नहीं पहुंचती। बिजली ज़रूर यहां पहुंची है वरना ये अंधेरे में रहने को विवश रहते क्योंकि किरोसिन तो अब कहीं मिलता नहीं।


ऐसे ही किशनगंज प्रखंड में ही है पंचायत दौला जिसका वार्ड नंबर 14 पूरा का पूरा कट कर महानंदा में समा गया। इसके निवासी पिछले चार साल के रोड के दोनों किनारे झोपड़ी बना कर रह रहे हैं, इनके लिए जैसे सरकार सो रही है। इसी बीच लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी हुए लेकिन इनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। लोगों की जमीने महानंदा में समा गई वो बेघर भी हुए और बिना जमीन वाले भी लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। एक बुजुर्ग महानंदा की तरफ दिखाते हुए कहते हैं वो दूर मेरा घर था महानंदा ने सब ले लिया। अब मजदूरी कर के जी रहे हैं। इसी प्रखंड में एक पंचायत है पिछला जो अपने नाम के अनुरूप किशनगंज का सबसे पिछड़ा पंचायत है। यहां कुछ लोगों को उज्ज्वला गैस का कनेक्शन तो मिला है लेकिन उसे भराने के लिए कोई सुविधा नहीं क्योंकि किशनगंज जाकर गैस भरा कर लाना एक दिन की मजदूरी का नुकसान करना है। बंगाल पास होने से ब्लैक में गैस तो मिल जाएगा लेकिन उसके लिए 3000 रुपए खर्च करना समान्य परिवार के लिए लगभग असंभव ही है।  

किसी भी पंचायत में आप जाएं आपको सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि आधी से ज्यादा आबादी रोजगार के लिए बिहार से बाहर है। यहां काम धंधे का कोई उपाय नहीं और पेट पालने के लिए पैसा कमाना जरूरी है। आलम ये है कि एक वार्ड सदस्य ने कहा कि कि वार्ड सदस्य तो हैं लेकिन कहीं नौकरी मिल जाती तो ज्यादा अच्छा होता, वार्ड सदस्य होने से पेट थोडे भरता है ना इसका कोई भविष्य है।

वैसे तो बिहार के ज्यादातर पंचायत का हाल कमोबेश ऐसा ही है लेकिन किशनगंज के किसी भी पंचायत में आप दिन में चले जाएं तो गांवों में ऐसा सन्नाटा मिलता है जैसे कोई रहता ही ना हो। कुछ बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग खोजने पर मिलते हैं, बात करने पर पता चलता है कि आधे से ज्यादा आबादी कमाने के लिए बिहार से बाहर रहती है। किसी किसी गांव में तो पलायन सत्तर फीसदी से ऊपर है। वैसे तो भारत गांवों का देश है लेकिन इन गांवों की खबरें दिखाने के लिए ना तो कोई मीडिया है ना इनकी स्थिति सुधारने के लिए कोई सरकार। आजादी के पचहत्तर सालों के बाद भी ये गांव अपने विकास की बाट जोह रहे हैं।