Friday 16 December 2016

निर्भया तुम नहीं हो लेकिन तुम्हारी चीखें अभी भी हैं....


16 दिसंबर 2012 आज चार साल हो गए, मैं दिल्ली में हीं था उस समय जब इंसानियत को अंदर तक तोड़ देने वाली और मनुष्यता को पशुता में बदल देने वाले उस भयावह घटना को अंजाम दिया गया था।
युवाओं मे इस घटना को लेकर बेहद आक्रोश था, जंतर –मंतर पर धरने दिए जा रहे थे, महिला-उत्पीड़न के खिलाफ कानून बदलने और ऐसे हैवानों को फाँसी देने की बात की जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे ये लडकों से अभद्रता समाप्त होने का काल है, इसके बाद ना लड़कियों से छेड़खानी की घटना सामने आएगी, ना बलात्कार होंगे, ना कोई लड़की जलाई जाएगी, ना उन पर कोई कमेंट हुआ करेगा, ना कहीं दहेज के नाम पर उन्हें जलाया जाएगा और ना ही कोई दुर्वयवहार होगा।
लेकिन 4 साल बीत गए और बदलाव के नाम पर हुआ क्या है, हाल में ही ऑटो से लौटते समय एक लड़की से हुई अभद्रता को मैंने फेसबुक पर शेयर किया उसके बाद मुझे पता चला कि वो तो बहुत छोटी बात थी। फेसबुक पर मेरे पोस्ट को पढ़ने के बाद कुछ लड़कियों ने बताया मुझे कि इससे कही ज्यादा बड़ी बात रोज हमारे आस पास हो रही हैं यहाँ तक की हर लड़की को अपने जीवन में ऐसे हादसों से गुजरना पड़ता है। एक लड़की की दास्तान शेयर कर रहा हूँ जिसे सुन के सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि हम कितना बदले हैं.........

मैं 6ठी क्लास में थी जब घर पर मुझे पढ़ाने के लिए ट्यूटर ढूंढ़ा जा रहा था, चूंकि मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते थे इसलिए हमेशा मेरा ख्याल रखते थे इसलिए नहीं चाहते थे कि मैं बाहर पढ़ने जाऊँ। मुझे पढ़ाने के लिए उन्होने अपने एक दोस्त के बेटे को बोल दिया था, कि वो घर का ही लड़का है ग्रेजुएशन कर रहा है, पढ़ने में तेज है तो अच्छे से पढ़ा भी लेगा और कुछ पॉकेटमनी भी उसे मिल जाएगी।
शुरू शुरू में वो बहुत अच्छे थे, मुझे मानते भी बहुत थे, पढ़ाते भी अच्छा थे, मेरे लिए चॉकलेट्स भी लाते थे, सबकुछ अच्छा चल रहा था फिर कि मुझे महसूस हुआ कि उन्होने अपने पढ़ाने की जगह बदल दी थी, पहले जो वो सामने बैठ के पढ़ाते थे वो अब बगल में बैठ के पढ़ाने लगे थे और कॉपी किताब लेने देने के बहाने मुझे छूने भी लगे थे। मुझे आज ये एहसास हो रहा है जबकि उस समय मुझे पता भी नहीं चल रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है।
एक दिन मम्मी बाहर गई हुई थी, पापा स्कूल से लौटे नहीं थे, भैया भी ट्यूशन पढने गया था। भैया मुझे पढ़ाने आए (हाँ, मैं उन्हें भैया ही कहती थी) पूछा कि कहाँ हैं सबलोग ?  मैंने बताया सबके बारे में, फिर उन्होंने पानी माँगा, मैं किचेन से जा के पानी ले के आई, उन्होंने पानी का ग्लास ले के टेबल पर रख दिया और मुझे पकड़ लिया और बेड पर लेकर चढ़ गए। तब मुझे समझ ही नहीं आया ये अचानक क्या हो रहा है लेकिन जो भी हो रहा था वो मुझे बहुत बुरा लग रहा था। मैं रोने लगी और थोड़ी देर में चिल्लाने लगी, जब उन्हें लगा कि मेरी आवाज घर के बाहर जा रही होगी तो  उन्होंने मुझे छोड़ा और मुझे समझाने लगे कि किसी से बताना मत वरना लोग मुझे जान से मार डालेंगे, मैं तो बस खेल रहा था, मैं रोज तुम्हारे लिए चॉकलेट लाया करूँगा, तुम किसी से कुछ मत कहना।
मैं धीरे-धीरे चुप हो गई डर भी लग रहा था कि सच में भैया को कोई मार ना डाले, फिर मुझे चुप करा कर भैया चले गए, मैंने भी ये बात किसी को नहीं बताई, भैया आते थे मेरे से नजर नहीं मिला पाते थे, मुझे भी अब उनसे डर लगने लगता रहता था औऱ पढ़ने में भी मन नहीं लगता था।
कुछ दिनों के बाद मैंने ये बात अपने बड़े भाई को बताई वो भी तब छोटा ही था  फिर भी उसने समझा औऱ पापा से बात कर के कहा कि इसे अब मैं ही पढ़ाऊँगा टाइम निकाल के आप भैया को आने से मना कर दीजिए।
इस घटना ने जैसे मेरे जीवन से प्रतिरोध की क्षमता ही छीन ली, स्कूल-कॉलेज में लड़के कमेंट कर के चले जाते थे और मैं चुप ही रह जाती थी, अब भी चुप रहती हूँ पर आपका पोस्ट पढ़ा तो लगा कि आपको बताऊँ जब इतनी छोटी घटना से प्रभावित  हैं तो सोचिए लड़कियाँ अपने जीवन में रोज होने वाले घटनाओं से कितना प्रभावित होंगी, और तो और वही आदमी अब किसी बड़ी कंपनी में काम कर रहा है,जब सामने आता है तो मन घृणा से भर जाता है लेकिन कुछ नहीं कर पाती। निर्भया आंदोलन ने ही क्या बदल दिया हर जगह रोज जाने कितनी निर्भया को मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है ये कमेंट करने वाले नहीं समझेंगे और क्या कहूँ  समझिए अब तो आदत ही हो गई है तो आप भी इतना मत सोचिए।
मैं खामोश था पलकों के कोरों पर आँसू थे, लग रहा था कि मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूँ औऱ इन सब घटनाओं के लिए मैं भी समान रूप से जिम्मेदार हूँ तो बस तुमसे यही कहना चाहता हूँ निर्भया तुम नहीं हो लेकिन तुम्हारी चीखें अब भी कानों में गूंज रही है, सवाल कर रही हैं कि मेरे बाद क्या बदला मेरे पास उसके सवालों के जवाब में बस आँसू हैं, क्या करूँ सॉरी भी तो नहीं बोल सकता क्योंकि कोई सॉरी बोलना भी  तुम्हारे साथ धोखा करना है क्योंकि सिर्फ सॉरी बोलने से का मतलब कुछ बदलना नहीं होता।
रोज ऐसी घटनाएं हमारे आस-पास हो रही हैं और रोज जाने कितनी निर्भया का शिकार हो रहा है लेकिन बदलाव के नाम पर नील बटे सन्नाटा है, तुम तो सब देख रही होगी तुम्हें क्या बताना बस खामोशी से देखते रहो और कोसते रहो इस समाज को।


(अभिषेक)

Tuesday 15 November 2016

नोटबंदी- परेशान जनता के बीच देश को आगे ले जाने की कवायद


500-1000 के नोटों की बंदी ने सामान्य तौर पर जीवन में अस्तव्यस्तता की स्थिति उत्पन्न कर दी है। तमाम बैंकों और एटीएम के आगे लगती हुई लाइनें इसके गवाह हैं। काफी जगह मार-पीट और भगदड़ जैसी स्थिति भी उत्पन्न हुई है लेकिन ज्यादातर जगह लोग लाइन में लग रहे हैं और पैसे निकाल रहे हैं। सरकार के खिलाफ गुस्से और आक्रोश के साथ-साथ अच्छा खासा समर्थन भी है जो सरकार के लिए उत्साह बढ़ाने वाला है। ये अलग बात है कि इस योजना को लागू करने से पहले कुछ जरूरी कदम उठाए जा सकते थे, जिससे यह बात बाहर आए बिना कि नोट बंद होने वाले हैं योजना को अच्छे से लागू किया जा सकता जैसे-

1.       माइक्रो एटीएम की व्यवस्था पहले से की जा सकती थी जिसे अब लगाने की बात की जा रही है इसके लिए कुछ बताने की जरूरत भी नहीं थी क्योंकि ग्रामीण इलाकों में वैसे भी एटीएम का अभाव है।

2.       यूं भी बैंकों के बहुत सारे एटीएम खराब रहते हैं या बहुतों में पैसे नहीं रहते तो आरबीआई के द्वारा एक गाइडलाइन जारी कर इन बैंकों को इन्हें सुचारू रुप से चलाने के निर्देश दिया जा सकता था, इसके लिए भी नोटबंदी की खबर बताने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि एटीएम अब हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं जिनके बंद रहने से परेशानी होती है।

3.       हवाईजहाज से नोट पहुँचाने की व्यवस्था जो दो दिन बाद शुरू हुई वो घोषणा के तुरंत बाद से भी की जा सकती थी ताकि बैंको में नोट कम ना पड़ें।

4.       एटीएम तक नोट पहुँचाने वाले एजेंसियों की संख्या में वृद्धि कर इस समस्या को कम किया जा सकता था।


5.       2000 के बदले 500 के नए नोट पहले बाजार में आने से छुट्टे की समस्या पर काबू पाया जा सकता था।
तो ये कुछ जरूरी उपाय पहले भी किए जा सकते थे जो अब किए जा रहे हैं। इतना होने के बावजूद ये निर्णय सही सोच से लागू किया गया तो कुछ सामान्य फायदे हो सकते हैं बड़े बदलाव की बात अलग है जैसे-
1.       काफी संख्या में देश के गाँवों में समृद्ध लोग भी अपने प्रभाव से या पैसे देकर खुद को बीपीएल की लिस्ट में शामिल करा लेते हैं अब अगर उनके अकाउंट में ज्यादा रूपए पाए जाएंगे तो सरकार उनसे सवाल कर सकती है कि वो कैसे बीपीएल में हैं जबकि उनके पास पर्याप्त पैसा है।

2.       देश में बेइमानों की कमी नहीं है और घूस देकर यहाँ लगभग हर काम कराया जा सकता है जैसे बहुत सारे सरकारी नौकरी वाले, व्यापारी, प्राइवेट नौकरी वालों के बच्चे घूस देकर अपना मात्र 6000 का इन्कम सर्टिफिकेट बनवा लेते हैं और स्कॉलरशिप उठाते हैं और जरूरतमंद छात्र इससे वंचित रह जाते हैं। ऐसे लोगों के अकाउंट को चेक कर इस पर लगाम लगाया जा सकता है और उन लेखपालों को भी दंडित किया जा सकता है जो ऐसे जाली सर्टिफिकेट बनाते हैं। ये अलग बात है कि ये इतना आसान नहीं होगा लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं होगा जितना अभी का फैसला था।

3.       घूस लेकर हजारों करोड़ की संपत्ति जमा करने वाले लोग अब इतना खूल कर घूस नहीं लेंगे और लेंगे भी तो शायद घर में जमा कर के नहीं रखेंगे और ना बैंक में जमा कर पाएंगे। लेकिन छोटे नोटों के रुप में घूस लेने की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता क्योंकि आदत सुधरती नहीं है इतनी जल्दी।

4.       देश में इन्कम टैक्स भरने वालों की संख्या में इजाफा हो सकता है क्योंकि यहाँ के जनसंख्या का बहुत कम अनुपात टैक्स का भुगतान करता है। लोग साल में 22 लाख की खरीदारी करते हैं लेकिन वार्षिक आय 5 लाख से कम ही दिखाते हैं।
5.       भविष्य का तो नहीं पता लेकिन अगले एक-दो साल पैसा घर में दबा के रखने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगा लोगों की क्रय क्षमता कम होने से मंहगाई के भी कम होने की संभावना है।

कुछ और भी जरूरी घोषणाएं कर प्रधानमंत्री लोगों का विश्वास मजबूत कर सकते हैं जैसे जिन कारपोरेट घरानों के पास बैंको के हज़ारों करोड़ बकाया है उनके उपर दबाव बनाया जाए कि वो कर्ज चुकाएं या उनके नाम सार्वजनिक किए जाएं, राजनीतिक दलों को उनके चंदे का हिसाब देने के लिए कानून बनाया जाए और उन्हें आरटीआई के दायरे के अंदर लाया जाए।

ये अलग बात है कि इसके लिए ढृड़इच्छाशक्ति चाहिए जो कि उन्होंने नोटबंदी के फैसले को लेकर दिखाया है।
उम्मीद है कि अभी चलती हुई परेशानी कुछ अच्छा परिणाम लेकर आए वरना हमेशा की तरह अगर परिणाम ढ़ाक के तीन पात हुए तो जनता एक बार फिर ठगी जाएगी और तमाम सवालों के लिए प्रधानमंत्री को तैयार रहना होगा।

(अभिषेक)


Saturday 12 November 2016


सवाल पर इतना कोहराम क्यों?


आमतौर पर सवाल पूछना हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। नीजि तौर पर हम अपन जीवन में कदम कदम पर सवाल करते हैं और या तो जवाब से संतुष्ट होकर आगे बढ़ते हैं या तो उचित जवाब नहीं मिलने पर झल्लाते हैं।
मैं भी बचपन से आज तक अपने क्लास में सवाल पूछने के कारण ही चर्चित रहा हूँ और दोस्तों के बीच मेरी प्रतिष्ठा भी इसी कारण रही है। बी.टेक के दौरान तो हालत ये थी कि जब दोस्तों का क्लास में मन नहीं लगता था तो वो कहते थे कि अबे मिश्रा टीचर को किसी सवाल में उलझाओ ना तब तक हम गप्पे मारते हैं। टीचर ने भी हमेशा यथासंभव अपने उत्तर से संतुष्ट ही करना चाहा जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
एक लोकतांत्रिक देश में सवाल उस लोकतंत्र की आत्मा को जिंदा रखता है शायद तभी संसद और विधानमंडलों में हर सांसद और विधायक को सवाल पूछने का अधिकार दिया गया है। हमारी किसी विधायक या सांसद में आस्था औप विश्वास रहता है तभी वोट देकर उसे चुनते हैं और ऐसे ही सरकार बनती है तो क्या उन्हें चुनने के बाद हम उनसे सवाल का अधिकार खो देते हैं?

वर्तमान के राजनीतिक परिदृश्य में सरकार से किए जाने वाले सवाल को बुरी तरह उलझाया जा रहा है मसलन हर सवाल को देशभक्ति की भावना से कैसे जोड़ कर देखा जा रहा है, अगर सरकार के हर फैसले के आप समर्थन में हैं तो आप देशहित में हैं वरना देश छोड़ कर चले जाइए। क्या ये किसी सवाल का जवाब हो सकता है कि देश छोड़ कर चले जाओ, ये सवाल ही हैं जिसने UPA सरकार के तमाम घोटालों का पर्दाफास किया तब तो ऐसे ऊंगलियाँ नहीं उठाई जाती थी, अब अगर अखलाक को भीड़ ने मार दिया और आपने सवाल किया तो आप देश के खिलाफ हैं, रेलवे के बढ़ते किराए पर सवाल किया तो आप देश के खिलाफ हैं, फर्जी इनकाउंटर पर सवाल किए तो आप देश के खिलाफ हैं, अरूणाचल-उत्तराखंड के सवाल पर कुछ कहा किए तो आप देश के खिलाफ हैं, गैस सब्सिडी खत्म होने पर सवाल किया किए तो आप देश के खिलाफ हैं, OROP पर चल रहे विवाद पर सवाल किया किए तो आप देश के खिलाफ हैं, और अब 500-1000 के नोट बदलने में हुए परेशानी पर सवाल करो तो भी आप देश के खिलाफ हैं, इतना ही नहीं ऐसे तमाम मामले हैं जहाँ आपको तपाक से देश के खिलाफ कह दिया जाएगा।

जहाँ तक सेना की बात है जिसपर सवाल उठाना आजकल अपराध हो गया है तो क्या सेना में भ्रष्टाचार नहीं होते, मैं अपने गाँव से सेना में गए ऐसे तमाम लोगों को जानता हूँ जिनका मेडिकल दलालों को पैसा देकर क्लियर हुआ है और आज भी होता है, आए दिन इसके लिए भी गिरफ्तारियाँ होती हैं। विदित हो कि अगस्टा वेस्टलैण्ड मामले में पूर्व उप वायुसेना प्रमुख जे एस गुजराल औऱ एस पी त्यागी को उनकी संदिग्ध भूमिकाओं के लिए सीबीआई ने तलब भी किया था।

ऐसा नहीं है कि मैं सेना का बलिदान कम आँक रहा हूँ ये सही है कि हम उनके वजह से महफूज हैं और घरों में चैन की नींद सोते हैं लेकिन कम से कम अपने राजनीतिक फायदे के लिए उनके बलिदान पर तो रोटियाँ ना सेकी जाएं। पूर्व सेना प्रमुख वी. के. सिंह आज सांसद हैं तो क्या उनसे उनके क्षेत्र की जनता सवाल करे कि इन 5 सालों में आपने क्षेत्र के विकास के लिए क्या किया तो वो ये कह कर टाल देंगे कि वो सेना से हैं उन्होंने सीमा पर देश के काफी कुछ किया है इसलिए उनसे सवाल नहीं होना चाहिए।

यही सेना से रिटायर होने के बाद जवान तमाम सिक्यूरिटी एजेंसियों में काम करते हैं तो भी क्या आप उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। मेरे कॉलेज हॉस्टल के वार्डन भी हमेशा सेना से रिटायर लोग ही रहे हैं अभी सेना का नाम जपने वाले मेरे कुछ मित्रों का तब उनके साथ कैसा व्यवहार था ये आज भी याद है मुझे । और ये तर्क कि आप दो दिन लाइन में खड़े नहीं हो सकते और सेना आपके लिए हमेशा खड़ी रहती है याद रखिएगा भविष्य में आप पर ही भारी पड़ने वाला है जब आपके हर परेशानी को यही कह कर टाल दिया जाएगा जैसे कभी बिजली की किल्लत हो गई जो कि आम है अपने देश में तो सरकार यही कहा करेगी कि सेना 24 घंटे बिना बिजली के खड़ी रहती है और आप बिना बिजली के नहीं रह सकते, ट्रेन में टिकट नहीं मिलने पर भी कहा जाएगा कि सेना देश के लिए हमेशा खड़ी रहती है और आप एक दिन की यात्रा खड़े होकर नहीं कर सकते, ऐसे ही आपके हर सवाल जिसका जवाब सरकार के पास नहीं होगा ऐसे तर्कों से आपका मुँह बंद कर दिया जाएगा।

तो किसी सवाल को बस ये कह कर खारिज़ देना कि ये देशहित के खिलाफ है मेरे अनुसार तार्किक नहीं क्योंकि सवाल हैं तो लोकतंत्र है और ये हमारा अधिकार भी है और मैंने पढ़ा भी है कि

अधिकार खोकर बैठ जाना यह महा दुष्कर्म है
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है

(अभिषेक)





Thursday 10 November 2016

500-1000 की बंदी और जीवन का यथार्थ


मैं गाँव में था और छठ के अवसर पर नाटक का मंचन चल रहा था जब ये ब्रेकिंग न्यूज सामने आई कि 500 और 1000 के नोट अब नहीं चलेंगे, पहले तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि अचानक ऐसा कैसे हो सकता है लेकिन अब गाँव में भी इंटरनेट का इस्तेमान करने वाले युवा हो गए हैं तो खबर की प्रमाणिकता भी मिली।

सुबह तक गाँव में ये खबर पूरी तरह फैल गई थी लेकिन किसी को समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। दरअसल छठ के अवसर पर बाहर से कमा के घर आने वाले अपने साथ 500 और 1000 के नोट ही लेकर आते हैं ताकि रास्ते में परेशानी ना हो और घर, गृहस्थी के तमाम काम वो घर आने के बाद उन पैसों से कराते हैं लेकिन अचानक हालात ऐसे हो गए हैं पैसा रहते हुए भी सारे गरीब हो गए हैं।

मैं ये नहीं कह रहा है कि ये गलत है, हो सकता है काला धन पर लगाम लगाने के लिए ये अत्यावश्यक हो लेकिन भारत जिसे गाँवों का देश कहते हैं वहाँ इसका क्या परिणाम हुआ है उससे अवगत करा रहा हूँ जो कि मैं देख के आया हूँ।

मेरे गाँव पजिअरवा प.चम्पारण बिहार से 12 किलोमीटर दूर सुगौली जंक्शन है जहाँ से लोगों को बाहर जाने के लिए जरूरी रेलगाड़ियाँ मिलती हैं। यहीं पर तमाम बैंक और एटीएम भी हैं, गाँव से सुगौली आने के लिए जीप मिलता है जिसका किराया 25 रूपए है। सुगौली में मिले मेरे गाँव के गिरिन्द्र मिश्र ने बताया कि वो लुधियाना रहते हैं और छठ मे गाँव आए हैं। उनके पास 50 रूपए थे और बाकि 500 को नोट है उन्हें भागलपुर जाना था जीप के 25 देने के बाद अब बस 25 बचे हैं, टिकट काउंटर पर कहा जा रहा है कि खुल्ला लेकर आओ तब टिकट मिलेगा वो परेशान हैं कि भागलपुर कैसे जाएँ।

गाँव में ही दोपहर को मेरे एक काका के यहाँ एक आदमी आया जिसने बताया कि पत्नी के इलाज के लिए उसने सूद पर 5000 रूपए लिए थे जिसमें 500 और 1000 के नोट थे जिसे लेकर वो इलाज के लिए सुगौली गया था लेकिन डॉक्टर ने पहले तो 100 के नोट नहीं होने से देखने से मना कर दिया लेकिन लाख मिन्नत करने के बाद देखा भी तो दवाई के दुकान वाले ने दवा देने से मना कर दिया क्योंकि उसके पास 500, 1000 के ही नोट थे। जब वह सूद वाले को पैसा वापस करने गया तो उसने भी नहीं लिया कि वो इसका जिम्मेदार नहीं है।
एक आदमी ने मुजफ्फरपुर से फोन किया कि उसके पास बस 500 हैं सारे एटीएम बंद हैं और बस वाला पैसा नहीं ले रहा है वो क्या करे कोई जान पहचान हो तो मदद करे। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो भयंकर रूप से परेशान हैं, मैं खुद जुगाड़ लगा कर कहीं से 1000 के चेंज लाया तो 500 पिता जी को दिए कि दो-चार दिन काम चलाएं और 500 ले कर बनारस आया।

ऐसे ही जाने कितने लोग अस्पताल, स्टेशन और कई जगहों पर परेशान घूम रहे हैं। अपनी परेशानियों को बताने का मतलब मोदी या सरकार का विरोध ही नहीं होता, ये सारी परेशानियाँ आपके परिवार को भी झेलनी पड़ रही होंगी, उम्मीद है देश के लिए इतना करना पड़ता है टाइप तर्क नहीं देंगे क्योंकि मैं यहाँ किसी का विरोध समर्थन नहीं मैं भी अपने मन की ही बात कर रहा हूँ जिसका मुझे भी हक है शायद।

(अभिषेक)

Wednesday 29 June 2016


कानून से बँधे हाथ अपने सुरक्षा में ही अक्षम

पिछले कुछ दिनों से आए दिन एक खबर अक्सर पढ़ने को मिल जा रही है कि फलाना जगह लड़कियों ने नशे में पुलिस की पिटाई कर दी। लड़कियों को रोकने के लिए जब तक महिला पुलिस आती है तब तक ये मर्द पुलिस वाले निरीह भाव से लड़कियों की गालियाँ और मार खाते रहते हैं। बीते दो दिनों मे ऐसी खबर मैं पढ़ चुका हूँ। एक में मुम्बई थाने में नशे में धुत लड़की ने थाने में आके पुलिस को गालियाँ दी और मारा क्योंकि उसे साथी के साथ रैश ड्राइविंग के लिए पकड़ा गया था। दूसरा मामला आगरा का है जिसमें दिल्ली से ताजमहल घुमने आई लड़कियों ने पहले तो सुरक्षा घेरा तोड़ा और जब पुलिस ने रोकने की कोशिश की तो मोदी जी के नाम की धमकियों के साथ पुलिस वालों की पिटाई भी की। जब तक महिला कॉँन्सटेबल आती मर्द पुलिस वालों की इज्जत तार तार हो गई थी।

कानून आत्मरक्षा का अधिकार सबको देता है चाहे वो आम नागरिक हो या कानून का मुलाजिम, लेकिन कानून के लंबे हाथों ने खुद इस कदर इन्हें बाँधा हुआ है कि ये हाथ बाँधे हुए मार खाने को विवश हैं। देश में महिला पुलिस की संख्या इतनी नहीं है कि हर जगह उन्हें तैनात किया जा सके लेकिन अपनी आजादी का इस तरह फायदा उठाना कहाँ तक उचित है?

पिछले कुछ दिनों से उच्च शिक्षा के लिए शहर जाने वाले लड़कियों की संख्या में इजाफा हुआ है और ये अच्छा संकेत है कि अभिभावक लड़कियों को भी अच्छी से अच्छी शिक्षा देने के प्रति सजग हुए हैं। लेकिन शहर की चकाचौंध और आजादी इनपे इस कदर हावी हो जाती है कि सही गलत को समझने में कई बार गलतियाँ हो जाती हैं। उड़ता पंजाब में दिखाया भी गया है कि कैसे ये नशे की आदी हो जाती हैं ये और हाल में ये बात भी सामने आई है  कि लड़कियों में नशे का प्रचलन काफी बढ़ा है। दिल्ली में हौजखास, गुड़गाँव और अक्सर रेव पार्टी में पकड़े जाने की खबर इसके गवाह हैं।

अपनी जीवन को चुनने की स्वतंत्रता और आजादी सभी को है संविधान भी हमें इसका अधिकार देता है लेकिन इसके साथ कुछ युक्तियुक्त निर्बंधन(reasonable restrictions) भी हैं ताकि हम अपने अधिकारों का बेवजह इस्तेमाल ना कर सकें। साथ में कुछ मौलिक कर्तव्य भी बताए गए हैं ताकि सबकुछ सुचारू रूप से चल सके। ये अलग बात है कि हम केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं कर्तव्यपालन पर ध्यान नहीं देते।

खैर मुद्दे पर आते हैं फिर से कि जब लड़कियों के नशे में होकर हंगामा करने की खबरें मीडिया के माध्यम से छोटे शहरों में पहुँचती हैं तो वहाँ के लोग इसे लड़कियों को बाहर नहीं भेजने के पीछे के तर्क के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि इसीलिए वो अपनी लड़की को बाहर नहीं भेजते! देखिए ये लड़कियाँ क्या कर रही हैं? ये अलग बात है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनपर इन बातों का कोई असर नहीं होता।

कुल मिलाकर बात ये है कि कब तक पुलिस वाले ऐसे पिटते रहेंगे? ऐसी लड़कियों से पुलिस वालों को पिटने से बचाने के लिए कानून में संसोधन हो वरना जो अपनी और अपने इज्जत की रक्षा नहीं कर पाएगा वो कानून की रक्षा क्या करेगा?? और लड़कियाँ भी अपने आजादी के मायने समझे और इसे सकारात्मक रूप मे लें और विकास के लिए इस्तेमाल करें। मस्ती भी करें लेकिन इस कदर नहीं की आपकी छवि को धक्का लगे।

(लेख का उद्देश्य कही से भी लड़कियों के आजादी पर सवाल उठाना नहीं है बस कुछ निर्दोष पुलिस वाले की पिटाई देख कर वेदनास्वरूप लिखा गया है।)

(अभिषेक)

Thursday 17 March 2016



गजल की एक शाम में आज हम आपका परिचय कराएंगे बेहतरीन शायर बशीर बद्र से।





भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले डॉ बशीर बद्र का जन्म कानपुर में 15 फरवरी 1936 को हुआ। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। इन्हें उर्दू का वह शायर माना जाता है जिसने कामयाबी की बुलन्दियों को फतेह कर बहुत लम्बी दूरी तक लोगों की दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। ज़िंदगी की आम बातों को बेहद ख़ूबसूरती और सलीके से अपनी ग़ज़लों में कह जाना बशीर बद्र साहब की ख़ासियत है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया। यही वजह है कि उन्होंने श्रोता और पाठकों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनाई है।


इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूँ
मेरा उसूल है, पहले सलाम करता हूँ
मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ



ग़ज़ल से अपना जनम-जनम का रिश्ता बताने वाला शायर ग़ज़ल की रूह में किस हद तक इन्सानियत का दर्द, उसकी मुहब्बत, उसकी जद्दोजहद, उसकी ख़्वाहिशात और उसकी हासिलत या नाकामियों की बुलन्दियों को पिरोया हुआ देखना चाहता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ग़ज़ल के एक-एक शेर से उनकी यह चाहत जुड़ी हुई है कि उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में पढ़ा जाए, पढ़ने वाले को वह अपनी दास्तान मालूम हो। इस लिहाज़ से डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़लें और उनके अशआर कोलकाता और केलीफोर्निया से हज़ारों-हज़ारों मील के फ़ासले के बावजूद एक तरह से अपनाए गए मिलते हैं। वो कहते हैं कि......



उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।



किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है, वे सब इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुल-मिल जाते हैं।


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा ।
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा ।



डॉ॰ बशीर बद्र 56 साल से हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायर हैं। दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे में शिरकत कर चुके हैं। बशीर बद्र आम आदमी के शायर हैं। साहित्य और नाटक अकादमी में किए गये योगदानों के लिए उन्हें 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।

(अभिषेक)



Wednesday 16 March 2016

सांस्कृतिक महोत्सव के समापन के साथ हीं पर्यावरण की चिंता भी समाप्त





जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने की हमारी आदत नई नहीं है, और श्री श्री रविशंकर और उनके विश्व सांस्कृतिक महोत्सव के समापन के साथ यमुना के खादर में फैले हुए कचरे को देखकर लगता है इसी इतिहास को दोहराया जा रहा है।

महोत्सव से पहले इसकी जगह को लेकर काफी विवाद भी हुआ। डीडीए द्वारा यमुना के खादर में इतने बड़े आयोजन की अनुमति देने पर एनजीटी ने डीडीए को काफी फटकारा भी साथ हीं साथ आयोजन से होने वाली क्षति की भरपाई के लिए श्री श्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग पर 5 करोड़ का जुर्माना भी लगाया।

इसके अलावा आर्ट ऑफ लिविंग की ओर से आयोजित निजी कार्यक्रम में सेना का इस्तेमाल कहां तक जायज है इसको लेकर भी काफी विवाद हुआ और सेना ने रक्षा मंत्रालय का आदेश कह कर अपनी सफाई भी दी। आयोजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए लेकिन इसके आयोजन में न तो सीधे तौर दिल्ली और न ही केन्द्र सरकार शामिल है। 

असम राइफल्स के पूर्व डीजी लेफ्टिनेंट जनरल रामेश्वर राय कहते हैं कि बेशक यह रक्षा मंत्रालय के कहने पर हो रहा है लेकिन यह सरासर गलत है। आम आदमी के पैसों के राष्ट्रीय संसाधन का दुरुपयोग हो रहा है। यह कोई राष्ट्रीय पर्व नहीं है जिसके लिए सेना की गरिमा को दांव पर लगाया जाए।   

अब जब 13 मार्च को पूरे धूमधाम के साथ विश्व सांस्कृतिक महोत्सव समाप्त चुका है, देश-विदेश से आए मेहमान, मंत्री, सेना सब महोत्सव में शामिल होकर लौट चुके हैं, एक चीज है, जो नहीं लौटी वह है इस महोत्सव के साथ गांव में आई गंदगी और खेती का नुकसान। यमुना के किनारे बसे गांवों के किसानों ने एक बार फिर अपने खेतों में काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन, अब कुछ दिनों तक इन्हें खेत में पड़े मल-मूत्र, पानी की बोतलों, पॉलिथीन और थर्मोकोल के ग्लासों को चुनना होगा, क्योंकि सांस्कृतिक महोत्सव के नाम पर खड़ी फसलों को बुलडोजर से कुचल दिया गया, फिर कूड़े से खेत पाट दिए गए।

पहले श्री श्री ने कहा कि महोत्सव के बाद उनके कार्यकर्ता स्थल की सफाई स्वयं करेंगे लेकिन अब पता चला है कि  महोत्सव स्थल की सफाई का ठेका एक कंपनी बीवीजी इंडिया लिमिडेट को दिया गया है। कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ओम प्रकाश कहते हैं कि उनकी कंपनी को महोत्सव स्थल की सफाई करने के लिए अधिकृत किया गया है और उनकी जिम्मेदारी केवल आयोजन स्थल को साफ करने की है ना कि पूरे क्षेत्र को।

हालात अब ऐसे हैं कि हर खेत में पन्नी ही पन्नी है, बोतल ही बोतल है। स्थानिय मजदूर हाथों से मल-मूत्र साफ कर रहे हैं। पुलिस इस मामले से कन्नी काट रही है कि उनकी जिम्मेदारी नहीं है कि वो आने वालों पर दबाव बनाएं कि वो सफाई के लिए रूके। सफाई करने वाले स्थानिय मजदूर हैं जिन्होंने भाड़े पर खेती के लिए जमीन लिया है और सफाई करना उनकी मजबूरी हो गई है। किसानों को 4000 प्रति एकड़ की दर से मुआवजा मिला था लेकिन महोत्सव के दौरान गाड़ियों और लोगों के भीड़ के कारण जमीन पूरी तरह दब गई है जिसे खेती लायक बनाने के लिए कई बार जुताई करनी पड़ेगी जिसका खर्चा मुआवजे से कहीं अधिक आएगा। किसान अपनी मजबूरी के कारण पहले कुछ बोल नहीं पाए क्योंकि उनको पता था कि विरोध करने से जो भी मुआवजा मिलने वाला था वो भी नहीं मिलता और एक बार जब महोत्सव खत्म हो गया तो अब उनकी सुनेगा कौन।

भारत की सभ्यता, संस्कृति का हवाला देकर और इस समारोह को देश की प्रतिष्ठा से जोड़कर महोत्सव का आयोजन तो करा लिया गया। प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री और देश-विदेश के कई गणमान्य लोगों ने इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज कराई लेकिन जिस पर्यावरण और यमुना की चिंता को देखते हुए एक समय लग रहा था कि आयोजन रद्द हो जाएगा अब उसी पर्यावरण की सुधि लेने वाला कोई नहीं है। एक तरफ जहाँ गंगा को बचाने के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन किया गया है और करोड़ों रूपये बहाए जा रहे हैं श्री श्री के महोत्सव वहीं यमुना के खादर में फैला हुआ कचरा इसका दर्द बयान कर रहा है जिसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं।

(अभिषेक)



Saturday 12 March 2016

IIMC का सफरनामा- 1


आज जब वाराणसी के लिए टिकट कटा रहा था तो अचानक दिल की धड़कनें बढ़ने लगी। इतने दिनों में पहली बार ये एहसास हुआ कि कुछ हीं दिनों में ये सब खत्म होने वाला है। ऐसा नहीं कि ये पहली बार हो रहा है, इससे पहले भी इंजीनियरिंग खत्म होने के बाद जब कॉलेज छोड़ रहा था तो कुछ ऐसा हीं लगा था। लगा था जैसे कि दिल के अंदर एक खाली जगह सा बन आया है जिसे कुछ भी कर के मैं भर नहीं पा रहा हूँ, कुछ है जो छूटता जा रहा है जिसे कितनी कोशिश कर के भी मैं पकड़ नहीं पा रहा हूँ। तब मैंने फैसला किया था कि अब कहीं भी जाऊँगा तो खुद को आइसोलेट कर के रखूँगा, किसी भी जगह ज्यादा घुलुंगा-मिलुंगा नहीं और ना हीं ज्यादा अपनापन बनाकर रखूँगा ताकि जब उस जगह को छोड़ूं तो कुछ भी छूटता हुआ मैंने सा ना लगे और इसे सहजता के साथ स्वीकार कर सकूँ।
इंजीनियरिंग के बाद नौकरी के दौरान और उसके बाद भी मैंने ना कोई नया मित्र बनाया और ना हीं किसी जगह से खुद को जोड़ा लेकिन IIMC में आने के बाद एक नई दुनिया और नए लोगों से मेरा परिचय हुआ। यहाँ कब कैसे और कितने मित्र इतनी जल्दी बन गए कि कुछ पता हीं नहीं चला। जब तक खुद को रोकता, संभालता,ये बताता कि भाई ये कोई स्थाई नौकरी का ठिकाना नहीं जो तू इतना खो रहा है इस दुनिया में, ये बस चंद महीने का कोर्स है और उसके बाद ये चेहरे जाने फिर कब दिखे तो खुद के दायरे को समेट, उसे छोटा कर वरना तकलीफ़ खुद को होनी है पर बात वहीं है कि “दिल है कि मानता नहीं।“
कब IIMC के कैंटीन के चाय से शुरू हुआ सफ़र रोड के उस पार बर्मा जी के ग्लास वाली चाय के रास्ते से होता हुआ पूर्वांचल के दहिया जी की चाय तक पहुँच गया पता हीं नहीं चला। ये सफ़र महज एक साल से भी कम का हो लेकिन इसके मकाम कई हैं। मैंने सोचा था कि मैं इस सफ़र के बारे में नहीं लिखुँगा लेकिन अब जब शुरू किया है तो IIMC में रहते हुए या यहाँ से जाने के बाद भी मैंने जिस सफ़र को जिया है, समय समय पर उससे आपका परिचय जरूर कराऊँगा ।
(अभिषेक)


Sunday 6 March 2016

लोप होती भाषायी मर्यादा


जीवन में सबसे आसान काम है गाली देना । आप जिससे सहमत नहीं है उसे गलिया दीजिए, ऐसा नहीं है कि मैंने कभी गाली नहीं दी या इस मामले में बड़ा पाकसाफ रहा हूँ लेकिन समय के साथ परिवर्तन होना स्वभाविक है और इसमें गलत क्या है, अब मैं केवल इस वजह से लोगों को नहीं गाली देता कि वो मेरे से सहमत नही है या उसकी विचारधारा मेरे से मेल नहीं खाती। बस ये कारण पर्याप्त नहीं होना चाहिये। वैसे मित्रमंडली में हमने गालियों को हमेशा मजाक के रूप में लिया ताकि हमारे बयानों में हमारे वक्तव्यों में ह्यूमर आ सके। कभी भी इसका उद्देश्य किसी को आहत करना नहीं रहा जहाँ तक मुझे याद है।
अब समय बदल चुका है, सोशल मीडिया के रूप में ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ने बड़ी मजबूती से लोगों को लोगों से जुड़ने का, संवादों और विचारों के आदान-प्रदान का, भावनाएँ प्रसारित करने का मौका दिया है। इसने एक तरफ जहाँ विचारों के प्रवाह को असिमित आकाश दिया वहीं दूसरी तरफ कुछ लिखते समय भाषायी रूप से किन बातों का ध्यान रखना चाहिए इसका लोप भी कर दिया।
सोशल मीडिया और नीजि जिंदगी में काफी फर्क होता है। हर इंसान अपने मित्रों के साथ जितने मजे और जैसी बातें करता है आम जीवन में वह अपने परिवार, माता-पिता, बाल-बच्चों के सामने वैसी बातें कदापि नहीं कर सकता। लेकिन इस बात का भान शायद आजकल किसी को नहीं रहा है। आज का वर्ग सोशल मीडिया पर लिखते समय धड़ल्ले से गालियाँ लिखता है, विचारधाराओं के समर्थन और विरोध करते हुए अपनी सीमाओं का इस तरह अतिक्रमण करता है जिसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जैसे भारत माता की जय कहने के लिए वह दबाव बनाते हुए कब माँ-बहन की गालियों तक पहुंच जाता है उसे खुद पता नहीं चलता।
बचपन में हमें सिखाया जाता था कि कुछ बोलने से पहले सोचना चाहिए कि आप क्या बोल रहे हैं इस तरह इंसान गलती करने से बचता है क्योंकि मुँह से निकली हुई बात फिर से वापस नहीं आ सकती। लेकिन ये सारी हातें हम भूल चुके हैं। बहस अब तर्कों पर आधारित नहीं रह के गालियों पर आधारित रहने लगी। इसके अलावा बयानों पर काबू रखना लोग भूल चुके हैं जिसको जो मन वहीं बोल देता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विद्वेष, धार्मिक कट्टरता, जातिगत दुर्भावना, क्षेत्रवाद, फैलाने का जो काम हो रहा है उससे खतरा हमारे देश की छवि को हीं है जिसे विविधताओं का देश कहा जाता है।
पिछले किछ दिनों में अगर किसी ने अपना विश्वास खोया है तो वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया। ज्यादातर लोग मीडिया को देख कर हीं किसी घटना के बारे में अपना मत बनाते हैं ऐसे में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह निष्पक्ष भाव से किसी भी घटना को दिखाए। लेकिन मीडिया भी अब विचारधाराओं से प्रभावित हुए बिना नहीं है। आजकल समाचार चैनलों को देखकर आसानी से यह बताया जा सकता है कि यह किस विचारधारा या किस दल से प्रभावित है। स्वतन्त्रता पूर्व पत्रकारिता मिशन था लेकिन जबसे कारपोरेट का इसमें प्रवेश हुआ है अधिकांशत: यह पैसा बनाने का माध्यम हो गया है।
एक बात और है कि बीते दिनों में लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम हुई है। लोग सुनकर, सोशल मीडिया और समाचार चैनलों को देखकर किसी भी घटना के संदर्भ में अपना मत बनाते हैं। सबको पता है कि राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने और वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ये कई उपक्रम करते हैं और इन माध्यमों का दुरुपयोग करते हैं। लेकिन कम से एक परिपक्व लोकतंत्र होने के नाते अपने देश की जनता से ये उम्मीद होना स्वभाविक है कि वो इस साजिश को समझे और इनके साजिशों से अलग होकर स्वतंत्र चिंतन मनन करें और निष्कर्ष पर पहुँचे।
जिस बात के लिए हमारा देश विश्वगुरू माना जाता रहा है उस विविधता को संभालें, तर्कों के माध्यम से लोगों के असंतोष दूर करने का प्रयास करें तथा देश की मर्यादा और गरिमा को बनाये रखें।



(अभिषेक)