Sunday 6 March 2016

लोप होती भाषायी मर्यादा


जीवन में सबसे आसान काम है गाली देना । आप जिससे सहमत नहीं है उसे गलिया दीजिए, ऐसा नहीं है कि मैंने कभी गाली नहीं दी या इस मामले में बड़ा पाकसाफ रहा हूँ लेकिन समय के साथ परिवर्तन होना स्वभाविक है और इसमें गलत क्या है, अब मैं केवल इस वजह से लोगों को नहीं गाली देता कि वो मेरे से सहमत नही है या उसकी विचारधारा मेरे से मेल नहीं खाती। बस ये कारण पर्याप्त नहीं होना चाहिये। वैसे मित्रमंडली में हमने गालियों को हमेशा मजाक के रूप में लिया ताकि हमारे बयानों में हमारे वक्तव्यों में ह्यूमर आ सके। कभी भी इसका उद्देश्य किसी को आहत करना नहीं रहा जहाँ तक मुझे याद है।
अब समय बदल चुका है, सोशल मीडिया के रूप में ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ने बड़ी मजबूती से लोगों को लोगों से जुड़ने का, संवादों और विचारों के आदान-प्रदान का, भावनाएँ प्रसारित करने का मौका दिया है। इसने एक तरफ जहाँ विचारों के प्रवाह को असिमित आकाश दिया वहीं दूसरी तरफ कुछ लिखते समय भाषायी रूप से किन बातों का ध्यान रखना चाहिए इसका लोप भी कर दिया।
सोशल मीडिया और नीजि जिंदगी में काफी फर्क होता है। हर इंसान अपने मित्रों के साथ जितने मजे और जैसी बातें करता है आम जीवन में वह अपने परिवार, माता-पिता, बाल-बच्चों के सामने वैसी बातें कदापि नहीं कर सकता। लेकिन इस बात का भान शायद आजकल किसी को नहीं रहा है। आज का वर्ग सोशल मीडिया पर लिखते समय धड़ल्ले से गालियाँ लिखता है, विचारधाराओं के समर्थन और विरोध करते हुए अपनी सीमाओं का इस तरह अतिक्रमण करता है जिसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जैसे भारत माता की जय कहने के लिए वह दबाव बनाते हुए कब माँ-बहन की गालियों तक पहुंच जाता है उसे खुद पता नहीं चलता।
बचपन में हमें सिखाया जाता था कि कुछ बोलने से पहले सोचना चाहिए कि आप क्या बोल रहे हैं इस तरह इंसान गलती करने से बचता है क्योंकि मुँह से निकली हुई बात फिर से वापस नहीं आ सकती। लेकिन ये सारी हातें हम भूल चुके हैं। बहस अब तर्कों पर आधारित नहीं रह के गालियों पर आधारित रहने लगी। इसके अलावा बयानों पर काबू रखना लोग भूल चुके हैं जिसको जो मन वहीं बोल देता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विद्वेष, धार्मिक कट्टरता, जातिगत दुर्भावना, क्षेत्रवाद, फैलाने का जो काम हो रहा है उससे खतरा हमारे देश की छवि को हीं है जिसे विविधताओं का देश कहा जाता है।
पिछले किछ दिनों में अगर किसी ने अपना विश्वास खोया है तो वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया। ज्यादातर लोग मीडिया को देख कर हीं किसी घटना के बारे में अपना मत बनाते हैं ऐसे में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह निष्पक्ष भाव से किसी भी घटना को दिखाए। लेकिन मीडिया भी अब विचारधाराओं से प्रभावित हुए बिना नहीं है। आजकल समाचार चैनलों को देखकर आसानी से यह बताया जा सकता है कि यह किस विचारधारा या किस दल से प्रभावित है। स्वतन्त्रता पूर्व पत्रकारिता मिशन था लेकिन जबसे कारपोरेट का इसमें प्रवेश हुआ है अधिकांशत: यह पैसा बनाने का माध्यम हो गया है।
एक बात और है कि बीते दिनों में लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम हुई है। लोग सुनकर, सोशल मीडिया और समाचार चैनलों को देखकर किसी भी घटना के संदर्भ में अपना मत बनाते हैं। सबको पता है कि राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने और वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ये कई उपक्रम करते हैं और इन माध्यमों का दुरुपयोग करते हैं। लेकिन कम से एक परिपक्व लोकतंत्र होने के नाते अपने देश की जनता से ये उम्मीद होना स्वभाविक है कि वो इस साजिश को समझे और इनके साजिशों से अलग होकर स्वतंत्र चिंतन मनन करें और निष्कर्ष पर पहुँचे।
जिस बात के लिए हमारा देश विश्वगुरू माना जाता रहा है उस विविधता को संभालें, तर्कों के माध्यम से लोगों के असंतोष दूर करने का प्रयास करें तथा देश की मर्यादा और गरिमा को बनाये रखें।



(अभिषेक)

No comments:

Post a Comment