Thursday 17 March 2016



गजल की एक शाम में आज हम आपका परिचय कराएंगे बेहतरीन शायर बशीर बद्र से।





भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले डॉ बशीर बद्र का जन्म कानपुर में 15 फरवरी 1936 को हुआ। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। इन्हें उर्दू का वह शायर माना जाता है जिसने कामयाबी की बुलन्दियों को फतेह कर बहुत लम्बी दूरी तक लोगों की दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। ज़िंदगी की आम बातों को बेहद ख़ूबसूरती और सलीके से अपनी ग़ज़लों में कह जाना बशीर बद्र साहब की ख़ासियत है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया। यही वजह है कि उन्होंने श्रोता और पाठकों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनाई है।


इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूँ
मेरा उसूल है, पहले सलाम करता हूँ
मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ



ग़ज़ल से अपना जनम-जनम का रिश्ता बताने वाला शायर ग़ज़ल की रूह में किस हद तक इन्सानियत का दर्द, उसकी मुहब्बत, उसकी जद्दोजहद, उसकी ख़्वाहिशात और उसकी हासिलत या नाकामियों की बुलन्दियों को पिरोया हुआ देखना चाहता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ग़ज़ल के एक-एक शेर से उनकी यह चाहत जुड़ी हुई है कि उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में पढ़ा जाए, पढ़ने वाले को वह अपनी दास्तान मालूम हो। इस लिहाज़ से डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़लें और उनके अशआर कोलकाता और केलीफोर्निया से हज़ारों-हज़ारों मील के फ़ासले के बावजूद एक तरह से अपनाए गए मिलते हैं। वो कहते हैं कि......



उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।



किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है, वे सब इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुल-मिल जाते हैं।


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा ।
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा ।



डॉ॰ बशीर बद्र 56 साल से हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायर हैं। दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे में शिरकत कर चुके हैं। बशीर बद्र आम आदमी के शायर हैं। साहित्य और नाटक अकादमी में किए गये योगदानों के लिए उन्हें 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।

(अभिषेक)



Wednesday 16 March 2016

सांस्कृतिक महोत्सव के समापन के साथ हीं पर्यावरण की चिंता भी समाप्त





जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने की हमारी आदत नई नहीं है, और श्री श्री रविशंकर और उनके विश्व सांस्कृतिक महोत्सव के समापन के साथ यमुना के खादर में फैले हुए कचरे को देखकर लगता है इसी इतिहास को दोहराया जा रहा है।

महोत्सव से पहले इसकी जगह को लेकर काफी विवाद भी हुआ। डीडीए द्वारा यमुना के खादर में इतने बड़े आयोजन की अनुमति देने पर एनजीटी ने डीडीए को काफी फटकारा भी साथ हीं साथ आयोजन से होने वाली क्षति की भरपाई के लिए श्री श्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग पर 5 करोड़ का जुर्माना भी लगाया।

इसके अलावा आर्ट ऑफ लिविंग की ओर से आयोजित निजी कार्यक्रम में सेना का इस्तेमाल कहां तक जायज है इसको लेकर भी काफी विवाद हुआ और सेना ने रक्षा मंत्रालय का आदेश कह कर अपनी सफाई भी दी। आयोजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए लेकिन इसके आयोजन में न तो सीधे तौर दिल्ली और न ही केन्द्र सरकार शामिल है। 

असम राइफल्स के पूर्व डीजी लेफ्टिनेंट जनरल रामेश्वर राय कहते हैं कि बेशक यह रक्षा मंत्रालय के कहने पर हो रहा है लेकिन यह सरासर गलत है। आम आदमी के पैसों के राष्ट्रीय संसाधन का दुरुपयोग हो रहा है। यह कोई राष्ट्रीय पर्व नहीं है जिसके लिए सेना की गरिमा को दांव पर लगाया जाए।   

अब जब 13 मार्च को पूरे धूमधाम के साथ विश्व सांस्कृतिक महोत्सव समाप्त चुका है, देश-विदेश से आए मेहमान, मंत्री, सेना सब महोत्सव में शामिल होकर लौट चुके हैं, एक चीज है, जो नहीं लौटी वह है इस महोत्सव के साथ गांव में आई गंदगी और खेती का नुकसान। यमुना के किनारे बसे गांवों के किसानों ने एक बार फिर अपने खेतों में काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन, अब कुछ दिनों तक इन्हें खेत में पड़े मल-मूत्र, पानी की बोतलों, पॉलिथीन और थर्मोकोल के ग्लासों को चुनना होगा, क्योंकि सांस्कृतिक महोत्सव के नाम पर खड़ी फसलों को बुलडोजर से कुचल दिया गया, फिर कूड़े से खेत पाट दिए गए।

पहले श्री श्री ने कहा कि महोत्सव के बाद उनके कार्यकर्ता स्थल की सफाई स्वयं करेंगे लेकिन अब पता चला है कि  महोत्सव स्थल की सफाई का ठेका एक कंपनी बीवीजी इंडिया लिमिडेट को दिया गया है। कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ओम प्रकाश कहते हैं कि उनकी कंपनी को महोत्सव स्थल की सफाई करने के लिए अधिकृत किया गया है और उनकी जिम्मेदारी केवल आयोजन स्थल को साफ करने की है ना कि पूरे क्षेत्र को।

हालात अब ऐसे हैं कि हर खेत में पन्नी ही पन्नी है, बोतल ही बोतल है। स्थानिय मजदूर हाथों से मल-मूत्र साफ कर रहे हैं। पुलिस इस मामले से कन्नी काट रही है कि उनकी जिम्मेदारी नहीं है कि वो आने वालों पर दबाव बनाएं कि वो सफाई के लिए रूके। सफाई करने वाले स्थानिय मजदूर हैं जिन्होंने भाड़े पर खेती के लिए जमीन लिया है और सफाई करना उनकी मजबूरी हो गई है। किसानों को 4000 प्रति एकड़ की दर से मुआवजा मिला था लेकिन महोत्सव के दौरान गाड़ियों और लोगों के भीड़ के कारण जमीन पूरी तरह दब गई है जिसे खेती लायक बनाने के लिए कई बार जुताई करनी पड़ेगी जिसका खर्चा मुआवजे से कहीं अधिक आएगा। किसान अपनी मजबूरी के कारण पहले कुछ बोल नहीं पाए क्योंकि उनको पता था कि विरोध करने से जो भी मुआवजा मिलने वाला था वो भी नहीं मिलता और एक बार जब महोत्सव खत्म हो गया तो अब उनकी सुनेगा कौन।

भारत की सभ्यता, संस्कृति का हवाला देकर और इस समारोह को देश की प्रतिष्ठा से जोड़कर महोत्सव का आयोजन तो करा लिया गया। प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री और देश-विदेश के कई गणमान्य लोगों ने इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज कराई लेकिन जिस पर्यावरण और यमुना की चिंता को देखते हुए एक समय लग रहा था कि आयोजन रद्द हो जाएगा अब उसी पर्यावरण की सुधि लेने वाला कोई नहीं है। एक तरफ जहाँ गंगा को बचाने के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन किया गया है और करोड़ों रूपये बहाए जा रहे हैं श्री श्री के महोत्सव वहीं यमुना के खादर में फैला हुआ कचरा इसका दर्द बयान कर रहा है जिसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं।

(अभिषेक)



Saturday 12 March 2016

IIMC का सफरनामा- 1


आज जब वाराणसी के लिए टिकट कटा रहा था तो अचानक दिल की धड़कनें बढ़ने लगी। इतने दिनों में पहली बार ये एहसास हुआ कि कुछ हीं दिनों में ये सब खत्म होने वाला है। ऐसा नहीं कि ये पहली बार हो रहा है, इससे पहले भी इंजीनियरिंग खत्म होने के बाद जब कॉलेज छोड़ रहा था तो कुछ ऐसा हीं लगा था। लगा था जैसे कि दिल के अंदर एक खाली जगह सा बन आया है जिसे कुछ भी कर के मैं भर नहीं पा रहा हूँ, कुछ है जो छूटता जा रहा है जिसे कितनी कोशिश कर के भी मैं पकड़ नहीं पा रहा हूँ। तब मैंने फैसला किया था कि अब कहीं भी जाऊँगा तो खुद को आइसोलेट कर के रखूँगा, किसी भी जगह ज्यादा घुलुंगा-मिलुंगा नहीं और ना हीं ज्यादा अपनापन बनाकर रखूँगा ताकि जब उस जगह को छोड़ूं तो कुछ भी छूटता हुआ मैंने सा ना लगे और इसे सहजता के साथ स्वीकार कर सकूँ।
इंजीनियरिंग के बाद नौकरी के दौरान और उसके बाद भी मैंने ना कोई नया मित्र बनाया और ना हीं किसी जगह से खुद को जोड़ा लेकिन IIMC में आने के बाद एक नई दुनिया और नए लोगों से मेरा परिचय हुआ। यहाँ कब कैसे और कितने मित्र इतनी जल्दी बन गए कि कुछ पता हीं नहीं चला। जब तक खुद को रोकता, संभालता,ये बताता कि भाई ये कोई स्थाई नौकरी का ठिकाना नहीं जो तू इतना खो रहा है इस दुनिया में, ये बस चंद महीने का कोर्स है और उसके बाद ये चेहरे जाने फिर कब दिखे तो खुद के दायरे को समेट, उसे छोटा कर वरना तकलीफ़ खुद को होनी है पर बात वहीं है कि “दिल है कि मानता नहीं।“
कब IIMC के कैंटीन के चाय से शुरू हुआ सफ़र रोड के उस पार बर्मा जी के ग्लास वाली चाय के रास्ते से होता हुआ पूर्वांचल के दहिया जी की चाय तक पहुँच गया पता हीं नहीं चला। ये सफ़र महज एक साल से भी कम का हो लेकिन इसके मकाम कई हैं। मैंने सोचा था कि मैं इस सफ़र के बारे में नहीं लिखुँगा लेकिन अब जब शुरू किया है तो IIMC में रहते हुए या यहाँ से जाने के बाद भी मैंने जिस सफ़र को जिया है, समय समय पर उससे आपका परिचय जरूर कराऊँगा ।
(अभिषेक)


Sunday 6 March 2016

लोप होती भाषायी मर्यादा


जीवन में सबसे आसान काम है गाली देना । आप जिससे सहमत नहीं है उसे गलिया दीजिए, ऐसा नहीं है कि मैंने कभी गाली नहीं दी या इस मामले में बड़ा पाकसाफ रहा हूँ लेकिन समय के साथ परिवर्तन होना स्वभाविक है और इसमें गलत क्या है, अब मैं केवल इस वजह से लोगों को नहीं गाली देता कि वो मेरे से सहमत नही है या उसकी विचारधारा मेरे से मेल नहीं खाती। बस ये कारण पर्याप्त नहीं होना चाहिये। वैसे मित्रमंडली में हमने गालियों को हमेशा मजाक के रूप में लिया ताकि हमारे बयानों में हमारे वक्तव्यों में ह्यूमर आ सके। कभी भी इसका उद्देश्य किसी को आहत करना नहीं रहा जहाँ तक मुझे याद है।
अब समय बदल चुका है, सोशल मीडिया के रूप में ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ने बड़ी मजबूती से लोगों को लोगों से जुड़ने का, संवादों और विचारों के आदान-प्रदान का, भावनाएँ प्रसारित करने का मौका दिया है। इसने एक तरफ जहाँ विचारों के प्रवाह को असिमित आकाश दिया वहीं दूसरी तरफ कुछ लिखते समय भाषायी रूप से किन बातों का ध्यान रखना चाहिए इसका लोप भी कर दिया।
सोशल मीडिया और नीजि जिंदगी में काफी फर्क होता है। हर इंसान अपने मित्रों के साथ जितने मजे और जैसी बातें करता है आम जीवन में वह अपने परिवार, माता-पिता, बाल-बच्चों के सामने वैसी बातें कदापि नहीं कर सकता। लेकिन इस बात का भान शायद आजकल किसी को नहीं रहा है। आज का वर्ग सोशल मीडिया पर लिखते समय धड़ल्ले से गालियाँ लिखता है, विचारधाराओं के समर्थन और विरोध करते हुए अपनी सीमाओं का इस तरह अतिक्रमण करता है जिसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जैसे भारत माता की जय कहने के लिए वह दबाव बनाते हुए कब माँ-बहन की गालियों तक पहुंच जाता है उसे खुद पता नहीं चलता।
बचपन में हमें सिखाया जाता था कि कुछ बोलने से पहले सोचना चाहिए कि आप क्या बोल रहे हैं इस तरह इंसान गलती करने से बचता है क्योंकि मुँह से निकली हुई बात फिर से वापस नहीं आ सकती। लेकिन ये सारी हातें हम भूल चुके हैं। बहस अब तर्कों पर आधारित नहीं रह के गालियों पर आधारित रहने लगी। इसके अलावा बयानों पर काबू रखना लोग भूल चुके हैं जिसको जो मन वहीं बोल देता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विद्वेष, धार्मिक कट्टरता, जातिगत दुर्भावना, क्षेत्रवाद, फैलाने का जो काम हो रहा है उससे खतरा हमारे देश की छवि को हीं है जिसे विविधताओं का देश कहा जाता है।
पिछले किछ दिनों में अगर किसी ने अपना विश्वास खोया है तो वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया। ज्यादातर लोग मीडिया को देख कर हीं किसी घटना के बारे में अपना मत बनाते हैं ऐसे में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह निष्पक्ष भाव से किसी भी घटना को दिखाए। लेकिन मीडिया भी अब विचारधाराओं से प्रभावित हुए बिना नहीं है। आजकल समाचार चैनलों को देखकर आसानी से यह बताया जा सकता है कि यह किस विचारधारा या किस दल से प्रभावित है। स्वतन्त्रता पूर्व पत्रकारिता मिशन था लेकिन जबसे कारपोरेट का इसमें प्रवेश हुआ है अधिकांशत: यह पैसा बनाने का माध्यम हो गया है।
एक बात और है कि बीते दिनों में लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम हुई है। लोग सुनकर, सोशल मीडिया और समाचार चैनलों को देखकर किसी भी घटना के संदर्भ में अपना मत बनाते हैं। सबको पता है कि राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने और वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ये कई उपक्रम करते हैं और इन माध्यमों का दुरुपयोग करते हैं। लेकिन कम से एक परिपक्व लोकतंत्र होने के नाते अपने देश की जनता से ये उम्मीद होना स्वभाविक है कि वो इस साजिश को समझे और इनके साजिशों से अलग होकर स्वतंत्र चिंतन मनन करें और निष्कर्ष पर पहुँचे।
जिस बात के लिए हमारा देश विश्वगुरू माना जाता रहा है उस विविधता को संभालें, तर्कों के माध्यम से लोगों के असंतोष दूर करने का प्रयास करें तथा देश की मर्यादा और गरिमा को बनाये रखें।



(अभिषेक)