Friday 19 September 2014

कभी कभी सोचता हु लाइफ़ फ़िल्मों की तरह होती तो कितना मजा आता, 3 घंटे मे सब कुछ, प्यार, तकरार, इजहार, इनकार, मार, और तमाम चीजे जो मसालेदार हो और अंत में जा के सब कुछ अपने हिसाब से सेट हो जाता है वरना पिक्चर बाकी है मेरे दोस्त।
और एक जीवन है जहां लडकी का आगमन ही, इतना विलंब होता है कि पुछिये मत, हमारे यहा तो ऐसा है कि लड्के ने अगर हिम्मत कर के लड्की से टाइम भी पुछ लिया (क्योकि हमारे क्लास में लड्कियां ही घडी पहन के आती थी लड्के को दसवी बोर्ड के बाद ही घडी देने का प्रचलने है वो भी प्रथम स्रेणी में) तो लडकी का जबाब होता था "भैया 5.30" और सारी मोहब्बत वही दम तोड देती थी।
उसके बाद का समय लडका इंजीनियरिंग की तैयारी में लगा देता है (हमारे तरफ़ अभी भी बहुत क्रेज है इसका) लड्का सोचता है कि जैसे ही कालेज मेम जायेगा पहला उद्देश्य यही होगा कि एक अच्छी लड्की से दोस्ती करना (मोहब्बत तो बाद में हो ही जायेगा) लेकिन उस बेचारे को क्या पता यहां कम्पटिशन इंजीनियरिंग इन्ट्रान्स से ज्यादा होता है और लडका और लडकी का अनुपात कम से कम 1:15 का होता है फ़िर वो जिस लडकी को पसंद करता है वो किसी और को पसंद करती है तो वो चाह के भी कुछ नहीं कर पाता और फ़िर उसपे प्रहार होता है उसके शुभचिंतक दोस्तो को जो उसे देवदास बनने की ओर अग्रसर करते हैं ये भाग भी कुछ दिन में समाप्त हो जाता है और लड्का हो जाता है खाली हाथ ।
 कुछ दोस्तो को लड्किया मिल भी जाती है क्योकि उन्होनें कसम नही उठाई होती है कि अमुक लडकी से ही रिश्ता जोडना है, कालेज खत्म होने के साथ ही रिश्ता भी खत्म हो जाता है। कुछ का आगे बढता तो है लेकिन जाति, समाज, बंधन, ध्रर्म, और खास तौर पर पिता जी के नाक बचाने के लिये खत्म कर दिया जाता है।
हाल में ही कुछ ऐसे दोस्तो का पता चला जिन्होंने सफ़लतापूर्वक सबके सहमति से अपने रिश्ते को अंजाम तक पहुंचाया उन्हे दिल से शुभकामनायें और उनके परिवारजनों का आभार जिन्होनें उन्हे समझा और आगे बढ्ने का मौका दिया वरना लाइफ़ में जब भी फ़िल्मे देखते यही सोचते कि ये सब बस फ़िल्मों मे होता है और उनकी कहानी तो दुसरे चरण में हीं रुक गई थी और मेरी तरह फ़ेसबुक के सहारे शेयर कर रहे होते.............
(19/09/2014)