Sunday 20 August 2017

बाढ़ तो बस झलकी है............
बिहार में बाढ़ से अभी मात्र 253 मौतें ही हुई है, आँकड़ा ज्यादा तो नहीं लग रहा है ना, वैसे भी अगस्त के महीने में मौतें तो होती रहती हैं। सरकार की इसमें क्या गलती है, हमारी तो आदत है हर मामले में सरकार की कमी निकाल कर उसे गरिया देना। अब मुख्यमंत्री हवाई यात्रा कर के डूबते हुए गाँव, खलिहानों को देख तो रहे हैं लेकिन कर क्या सकते हैं अब तैर तैर के लोगों को बचाएंगे क्या?  बाढ़ आपदा के नाम पर लाखों करोड़ों का फंड रीलिज करा सकते हैं, केन्द्र सरकार से मदद मांग सकते हैं वैसे भी प्रधानमंत्री जी उनके अभिन्न मित्र हो चुके हैं तो कोई दिक्कत ही नहीं है वो तो एक कुत्ते की मौत पर भी भावुक होने वाले लोग हैं फिर तो यहाँ 253 जानें हैं।
एनडीआरएफ की टीम जोर शोर से बचाओ कार्य में लगी है, मेरा गाँव डूबा हुआ है मदद के नाम पर गाँव से 5 किलोमीटर दूर एक स्कूल की छत पर 4 एनडीआरएफ के जवान तैनात हैं जो खाना बनाते हैं खाते हैं और केवल शौचालय के लिए नीचे उतरते हैं। अब लोगों को बचाने में अपनी जान थोड़े देंगे।
सड़क वैसे भी जर्जर ही थी, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से एक बार बनी थी उसके बाद बस टूटती रही, अब कई जगह से और टूट गई जिसे बाढ़ के बाद लोकल जीप गाड़ी वाले भर के जाने लायक बना देंगे। गाँव की छतों पर एक-आध पैकेट भी गिरे थे जिसे राहत सामग्री कहा जाता है।
बिजली की कौन बात करे मोबाइल के टावर भी बंद थे जिससे किसी से संपर्क नहीं हो पा रहा था। वैसे आप सोच रहे होंगे मैं ये सब क्यों बता रहा हूँ दरअसल ये उभरते हुए उन्नत भारत की तस्वीर है जिसे सबको आँख खोल के देखना चाहिए।
वैसे असली विपदा तो बाढ़ के बाद की है जब सैकड़ों बिमारियाँ जन्म लेंगी। वैसे भी बिहार में 28000 की आबादी पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है ऐसे में बिमारी का सामना करना कठिन होगा। फसलें डूब के बर्बाद हो चुकी होंगी तो इसका खामियाजा लोगों को अगले साल भुगतना होगा जब उनके खाने पर संकट आएगा। फसल से होने वाली कमाई पर निर्भर रहने वालों का दैनिक जीवन जिस भयंकर रूप से प्रभावित होगा उसका अनुमान लगाना कठिन है।
ऐसे में मुझे गोदान के होरी की याद आ जाती है जो साल दर साल कर्ज के दलदल में ऐसा धंसता चला जाता है कि मौत को बाद भी नहीं उबर पाता। आज भी ऐसे होरियों की कमी नहीं है। दरअसल हम इनकी समस्या बस देख सकते हैं, लिख सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, ना समझ सकते हैं ना झेल सकते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि इसमें सरकार क्या करे, मैं पूछता हूं तो सरकार आखिर है ही क्यों बस लोकतंत्र का पर्व मनाने के लिए?  हर पाँच साल में हम लोकसभा विधानसभा के चुनावों के लिए लाइन लगा के मतदान के लिए खड़े हो जाते हैं तय करते हैं अपना भविष्य कि अब सब बदल जाएगा लेकिन बदलता क्या है ये मेरे लिए एक सवाल ही है, आपके मन में सवाल नहीं उठते क्या या आप सवालों से डरते हैं कि आप पूछेंगे तो आपसे कोई पूछेगा तो डरिए मत सवाल आए तो मुझे भी बताइए...हम साथ पूछेंगे अगली बार................

(अभिषेक)
बाढ़ तो बस झलकी है............
बिहार में बाढ़ से अभी मात्र 253 मौतें ही हुई है, आँकड़ा ज्यादा तो नहीं लग रहा है ना, वैसे भी अगस्त के महीने में मौतें तो होती रहती हैं। सरकार की इसमें क्या गलती है, हमारी तो आदत है हर मामले में सरकार की कमी निकाल कर उसे गरिया देना। अब मुख्यमंत्री हवाई यात्रा कर के डूबते हुए गाँव, खलिहानों को देख तो रहे हैं लेकिन कर क्या सकते हैं अब तैर तैर के लोगों को बचाएंगे क्या?  बाढ़ आपदा के नाम पर लाखों करोड़ों का फंड रीलिज करा सकते हैं, केन्द्र सरकार से मदद मांग सकते हैं वैसे भी प्रधानमंत्री जी उनके अभिन्न मित्र हो चुके हैं तो कोई दिक्कत ही नहीं है वो तो एक कुत्ते की मौत पर भी भावुक होने वाले लोग हैं फिर तो यहाँ 253 जानें हैं।
एनडीआरएफ की टीम जोर शोर से बचाओ कार्य में लगी है, मेरा गाँव डूबा हुआ है मदद के नाम पर गाँव से 5 किलोमीटर दूर एक स्कूल की छत पर 4 एनडीआरएफ के जवान तैनात हैं जो खाना बनाते हैं खाते हैं और केवल शौचालय के लिए नीचे उतरते हैं। अब लोगों को बचाने में अपनी जान थोड़े देंगे।
सड़क वैसे भी जर्जर ही थी, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से एक बार बनी थी उसके बाद बस टूटती रही, अब कई जगह से और टूट गई जिसे बाढ़ के बाद लोकल जीप गाड़ी वाले भर के जाने लायक बना देंगे। गाँव की छतों पर एक-आध पैकेट भी गिरे थे जिसे राहत सामग्री कहा जाता है।
बिजली की कौन बात करे मोबाइल के टावर भी बंद थे जिससे किसी से संपर्क नहीं हो पा रहा था। वैसे आप सोच रहे होंगे मैं ये सब क्यों बता रहा हूँ दरअसल ये उभरते हुए उन्नत भारत की तस्वीर है जिसे सबको आँख खोल के देखना चाहिए।
वैसे असली विपदा तो बाढ़ के बाद की है जब सैकड़ों बिमारियाँ जन्म लेंगी। वैसे भी बिहार में 28000 की आबादी पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है ऐसे में बिमारी का सामना करना कठिन होगा। फसलें डूब के बर्बाद हो चुकी होंगी तो इसका खामियाजा लोगों को अगले साल भुगतना होगा जब उनके खाने पर संकट आएगा। फसल से होने वाली कमाई पर निर्भर रहने वालों का दैनिक जीवन जिस भयंकर रूप से प्रभावित होगा उसका अनुमान लगाना कठिन है।
ऐसे में मुझे गोदान के होरी की याद आ जाती है जो साल दर साल कर्ज के दलदल में ऐसा धंसता चला जाता है कि मौत को बाद भी नहीं उबर पाता। आज भी ऐसे होरियों की कमी नहीं है। दरअसल हम इनकी समस्या बस देख सकते हैं, लिख सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, ना समझ सकते हैं ना झेल सकते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि इसमें सरकार क्या करे, मैं पूछता हूं तो सरकार आखिर है ही क्यों बस लोकतंत्र का पर्व मनाने के लिए?  हर पाँच साल में हम लोकसभा विधानसभा के चुनावों के लिए लाइन लगा के मतदान के लिए खड़े हो जाते हैं तय करते हैं अपना भविष्य कि अब सब बदल जाएगा लेकिन बदलता क्या है ये मेरे लिए एक सवाल ही है, आपके मन में सवाल नहीं उठते क्या या आप सवालों से डरते हैं कि आप पूछेंगे तो आपसे कोई पूछेगा तो डरिए मत सवाल आए तो मुझे भी बताइए...हम साथ पूछेंगे अगली बार................

(अभिषेक)