Tuesday 21 October 2014

प्रेम तो एक अटूट रिश्ता है जिसमें एक नहीं कई जन्मों तक साथ निभाने का वादा होता है (ये वादा ज्यादातर मामलों में बस शादी से पहले तक का हीं होता है।) तो जहां इतने जन्मों तक साथ निभाने का वादा हो वो चंद मेट्रो स्टेशन के फ़ासले तय करने में भला कैसे टूट सकता है। सरकार ने भले लडकियों के लिये एक अलग ड्ब्बा रिजर्व कर रखा है लेकिन ये केवल उन महिलाओं के लिये है जो सिंगल हैं या मेट्रों में सिंगल सफ़र कर रही हैं। जो अपने प्रेमी के साथ हैं वो भीड की परवाह नहीं करते। आजकल दिवाली के कारण मेट्रो की जो हालत है उसमें सफ़र करना एक जंग से कम नहीं है। एक आम इंसान को भी राजीव चौक(कनाट प्लेस) में चढने के लिये काफ़ी मश्शक्कत करना पडता है वहां इन प्रेमी जोडों के प्रेम का असली इम्तहान होता है, भीड से लडते, पिसते, एक दुसरे के हाथ को थामे ये आगे बढते हैं।जहां आम आदमी कई मेट्रो छोड देता है कि अगली में जायेगा वहां इन जोडों का एक साथ साधारण ड्ब्बे में चढने का उत्साह देखते हीं बनता है। हो सकता है कि मैं ये सारी बाते जलनवश लिख रहा हूं क्योंकि मेरा सफ़र अकेले का हीं था लेकिन मेरी अंतराअत्मा की आवाज़ है कि अगर कोई साथ भी रहता तो भगवान के लिये मैं उसे साथ लेके नहीं चढ पाता, मेरी हिम्मत हीं नहीं होती। उसे लड्कियों वाले ड्ब्बे में संघर्ष करके चढने को कहता, थोडी दूर अलग चलने से हीं मेरा प्रेम कम थोडे ना हो जाता वैसे भी मेरे प्रेम से ज्यादा उसकी सुरक्षा मेरे लिये महत्वपूर्ण होती। तो जो भी इस भीड में अपने प्रेमी/प्रेमिका के साथ सफ़र कर रहे हैं उनके जज्बे जो सलाम और सुरक्षा की कामना करता हूं और दिवाली की शुभकामनायें देता हूं।


Wednesday 1 October 2014

आत्मस्वाभिमान किसी उम्र का मोहताज नही होता, मैं ये भी नही कह सकता कि वो पारिवारीक प्रिष्ट्भूमि से आता है लेकिन ये जरुर है कि उसका उम्र से कोई लेना देना नही है। ये उस बच्चे में भी हो सकता है जो इस शब्द का मतलब तक नहीं जानता। दरअसल इन सब बातों को बताने के पीछे एक वजह है और वो है एक छोटा सा लड्का जो मुझे मेरे एक मित्र के विद्दालय में मिला।
मै हाल में हीं अपने घर गया हुआ था, अचानक वहां से एक दिन दोस्तो के साथ नेपाल घुमने का प्लान बना जो वहा से महज़ 45km दूरी पर है रास्ते में ही एक मित्र का स्कूल है तो सोचा उसे भी साथ ले लेते हैं। वो छुट्टी लेने गया तब तक हमलोग एक बच्चे से बात करने लगे। बातों बातों में मैनें ध्यान दिया कि बच्चे के पैर में चप्पल नहीं था तो मैनें उससे पुछा कि चप्पल क्यों नहीं पहन के आये हो तो बच्चे ने बताया कि टूट गया है। धुप बहुत ज्यादा थी और ऐसे में बच्चे का ये जबाब सुन के इंसानियत के नाते थोडी भावुकता का आना तो स्वभाविक था। अलकतरे की सड्क पर नंगे पैर चल के आने का मर्म भला कौन नही समझ सकता। 
मैनें कहा कि चप्पल क्यों नहीं बनवाते तो उसने कहा "पैसे नहीं नहीं हैं, पापा बाहर गये हैं कमाने, वो पैसे लेकर आयेंगे ताब चप्पल लुंगा।" 
मुझे इस जबाब कि उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। मैंनें उसे कुछ पैसे देने चाहे पर उसने साफ़ इनकार कर दिया कि नहीं वो चप्पल अपने पापा के आने के बाद हीं लेगा। कैसे भी समझाया मैं उसका बडा भाई हुं उसके पापा से वापस ले लंगा मैं तब जाके वो माना।
शिक्षा जरुरी नहीं कि आपके बडे ही दे पाये हर किसी से सिखने को मिलता है पर जरुरी उस शिक्षा का सदुपयोग। इंसान छोटी छोटी चीजें देखता तो है पर ये सोच के आगे बढ जाता है कि उसे क्या मतलब या उसके जीवन पर इससे क्या फ़र्क पडता है।
सरकार मिड डॆ मिल योजना चला के समझती है उसकी जिम्मेदारी पूरी हो गई और वो बहुत अच्छा काम कर रही है पर जो बाकी छोटी छोटी चीजें है क्या उसके लिये कोई व्यवहारपरक योजना नहीं बनाई जानी चाहिये?
ये तो एक बच्चे की बात है जो मेरे सामने है जाने ऐसे कितने बच्चे इस देश में हैं जो तमाम मुश्किलो से जुझ रहे हैं। 
वैसे हर जिम्मेदारी सरकार पर हीं छोड देना ठीक नहीं है। ये कुछ ऐसी चीजे हैं जो हमारे आपके सामने दिखती हैं और हम अपना मुंह मोड के सरकार को कोसते हुए चल देते हैं। जरुरत है असली जरुरतमंद को समझने की और उस हद तक उसका मदद करने कि जहां तक अपना नुकसान ना होता हो वरना लानत है ऐसे विकास पर जो आपको तो सबकुछ देता हो लेकिन किसी को एक चप्पल तक नसीब ना हो।