हाँ तुम वहीं थी..........
मैं पिताजी को
छोड़ने स्टेशन पहुँचा था, छोटा स्टेशन होने के बावजुद वहाँ दो प्लेटफॉर्म थे।
ट्रेन आने में अभी टाइम था इसलिए मैं मन बहलाने के लिए पेपर पढ़ने लगा और पापा भी
कोई पत्रिका पलटने लगे। तबतक दुसरे प्लेटफॉर्म पर किसी ट्रेन के आने की सूचना हुई।
स्टेशन पर हलचल बढ़ गई और बैठे यात्रियों में कुछ उठ कर ओवरब्रिज से दुसरे
प्लेटफॉर्म पर जाने लगे। इसी बीच पिताजी की ट्रेन आ गई और मैं उनका सामान उठा कर
उन्हें बैठाने लगा। सब सामान सेट कर के उन्हें बैठा दिया थोड़ी हीं देर बाद उनकी
ट्रेन निकल गई। इसी बीच दुसरे प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन आकर लगी। चूँकि दोनों प्लेटफॉर्म
में ज्यादा फासला नहीं था इसलिए मेरी जगह से दुसरी ट्रेन में बैठे लोग साफ नजर आ
रहे थे। अचानक ट्रेन की खिड़की से एक जानी पहचानी सूरत झाँकती नजर आई, दिल की
धड़कनें बढ़ने लगी। समझ नहीं आ रहा था कि जो मैं देख रहा हूँ वो सच है या
काल्पनिकता?
उसे देखे अरसा बीत
चुका था, बात किए जमाने हो गए थे, दूर-दूर से कोई अंदेशा नहीं था कि कभी इसे देख
पाउँगा अब दिल और दिमाग में द्वंद शुरू हुआ। दिल कहता था कि मैं रेल की पटरियाँ पार
कर उस ट्रेन में जाऊँ और से देखूँ कि क्या ये वहीं है? पर दिमाग कह रहा था कि
ट्रेन का सिग्नल हो चुका है और अगर मेरे जाते हीं ट्रेन निकल गई तो? कहीं ये वो ना हुई जो मैं
सोच रहा हूँ तो? उसने मेरी तरफ नहीं देखा तो? देख कर भी नहीं पहचाना तो? और फिर ये सब करने का फायदा क्या? ऐसे तमाम सवाल दिमाग में
जाने कितने किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दिमार में दौड़ रहे थे।
अंत में जीत दिल की
हुई, अब मुझे रेल की पटरियाँ नहीं बस उसकी चेहरा दिख रहा था और मैं उसकी तरफ कदम
बढ़ा चुका था जैसे हीं मैं ट्रेन में घुसा ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया लेकिन मैं
अपना कदम बढ़ा चुका और बिना उसे देखे उतरने का मेरा कोई फैसला नहीं था। मैं उसकी
तरफ बढ़ रहा था साथ हीं ट्रेन भी अपनी रफ्तार बढ़ा रही थी।
और फिर मैंने उसे
देखा, हमारी नजरें मिली, लेकिन ना तो उसके चेहरे के भाव बदले ना मेरे पर मैं उसे
पहचान चुका था, हाँ ये वहीं थी, उसके साथ जुड़ी तमाम यादें दिमाग में घुमने लगी और
एक सवाल भी कि क्या उसने मुझे पहचाना क्या मैं भी उसे याद हूँ यहीं सोचते हुए
ट्रेन से उतरा। ट्रेन अपना रफ्तार काफी बढ़ा चुकी थी धूल, यादों और सवालों के बवंडर
साथ उड़ रहे थे।
(अभिषेक)
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